अभिमन्यु डाइनिंग टेबल पर खाना लगा चुका था, बहुत सोच-विचारकर आज पहली बार उसने दो की जगह सिर्फ एक ही प्लेट लगाई थी। कुछ पाँच मिनट बीते होंगे कि तभी उसकी माँ अपने बेडरूम से निकलकर बाहर हॉल मे चली आती है, विश्वास से परे कि जिस अवस्था मे वह बेडरूम के भीतर गई थी, अपनी उसी पूर्ण नंगी अवस्था मे वापस भी लौट आई थी।
"तो शुरू करें" अपनी दोनो हथेलियां आपस मे मलती वैशाली बेटे की हैरान आँखों मे झांकते हुए बोली और बिना किसी अतिरिक्त झिझक के वह सीधे उसकी गोद मे आ कर बैठ गई।
"आज तो मैं तुम्हारे हाथों से ही खाऊँगी" अपनी नग्न पीठ का सारा भार अभिमन्यु की बलिष्ठ छाती पर डालते हुए उसने पिछले कथन मे जोड़ा और साथ ही अपनी टाँगों की जड़ को बेशर्मीपूर्वक चौड़ाकर वह अपनी मांसल चिकनी जांघें बेटे की जाँघों के पार निकाल उन्हें नीचे फर्श पर लटका लेती है।
"तुम्हारी दाद देनी पड़ेगी माँ, अगर आखिरी रोटी को हटा दो तो बाकी सभी रोटियां परफैक्ट बनी हैं" अभिमन्यु चपाती हॉटकेस खोलते हुए बोला और अगले ही क्षण अपनी दाईं सभी उंगलियां अपनी माँ की टाँगों की खुली जड़ के बीचों-बीच फेरने लगा। वह अपनी उंगलियों को उसकी चूत की फांखों, उनके मध्य के अत्यंत चिपचिपे चीरे पर भी रगड़ता है और जब उसकी उंगलियां अच्छी तरह से उसकी माँ के कामरस से तर-बतर हो चुकती हैं, अपनी उन्हीं रस भीगी उंगलियों से वह रोटी का पहला निवाला बनाकर आश्चर्य से अपना मुंह फाड़े बैठी अपनी माँ के खुले होंठों के भीतर पहुँचा देता है।
"जल्दी चबाओ मम्मी, मेरी उंगलियां भी तो चाटकर साफ करना है तुम्हें वर्ना दोबारा इन्हें तुम्हारी चूत के अंदर कैसे घुसेडूंगा ...फिर कहोगी कि जलन मच रही है" अभिमन्यु तब अपने पिछले कथन मे जोड़ता जब उसकी माँ निवाले को चबाने मे अपनी असमर्थता जताती है, हालांकि निवाले भरे मुँह से वह कुछ बोल तो नही सकती थी मगर उसके चेहरे के घृणित भावों से बिन बोले ही वह सबकुछ समझ गया था।
"मेरे हाथ के बने खाने को, मेरी ही चूत के पानी से गंदा कर खुद मुझे ही खिला रहे हो ...छि: मन्यु! बहुत गंदे हो तुम" जैसे-तैसे निवाले को अपने गले से नीचे उतार सकी वैशाली बेटे की सनी उंगलियों को घूरते हुए बोली।
"चलो कोई ना, मैं ही इन्हें चाटकर साफ कर देता हूँ। तुम चखो या ना चखो पर मुझे तो अब तुम्हारी स्वादिष्ट रज की जैसे अफीम लग चुकी है ...मेरा मतलब है कि मैं तुम्हारी रज का अब आदी हो गया हूँ माँ" मुस्कुराकर ऐसा कहते हुए ज्यों ही अभिमन्यु ने अपनी उंगलियों का अपने मुँह के नजदीक लाना चाहा, जाने क्या सोचकर तत्काल उसकी माँ उसकी कलाई को मजबूती से पकड़ते हुए उसकी पूरी हथेली ही चाटना शुरू कर देती है।
"अरे! अरे! अरे! चूसने मे तुम माहिर हो माँ, मैं जानता हूँ मगर अचानक यह बिल्ली की आत्मा तुम्हारे अंदर कैसे घुस गई?" अभिमन्यु जोरों से हँसते हुए पूछता है। कुछ उसके बेतुके प्रश्न का असर और कुछ अपनी ही शर्मनाक हरकत के सम्मिश्रण से सहसा वैशाली की खिलखिलाहट भी ऊँची हो गई, अपनी खिलखिलाहट की असल वजह तो वह खिलखिलाते हुए भी नही जान पाई थी मगर जो कुछ भी उस तात्कालिक परिस्थति के तहत वह महसूस कर रही थी, वह उस माँ की अबतक की सभी कल्पनाओं से अधिक सुखकर था।
ऐसे ही हँसते-हँसाते दोनों का खाना होता रहा। सब्जी और दाल में पड़े मसालों के प्रभाव से वैशाली की चूत मे जब-जब जलन होने लगती, अभिमन्यु अपनी गतिविधि पर फौरन रोक लगा लेता मगर जल्द ही उसकी शैतानी पुनः गतिशील हो जाती। उनके बीच का वार्तालाभ काफी हदतक इसी तरह आजादी, खुलेपन के इर्द-गिर्द सिमटा रहा था और जिसे दोनों माँ-बेटे बखूबी महसूस भी कर रहे थे। उनके रिश्ते की पवित्रता से जैसे उन्हें कोई सरोकार नही था, बल्कि उनकी आपसी निकटता अब पूर्व से कहीं ज्यादा प्रगाढ़ होती जा रही थी।
अपने जवान बेटे के समक्ष जो माँ कभी अपना पल्लू भी अपनी छाती से नीचे नही सरकने देती थी, आज उसी की गोद में पूरी तरह से नंगी होकर बैठी ठहाके लगाए हँसे जा रही थी मानो अपने उसी जवान बेटे के समकक्ष कपड़ो के बंधन से मुक्त होकर आज वह माँ ज्यादा खुश थी, अत्यधिक संतुष्ट थी। वहीं अभिमन्यु भी कम आंनदित नही था, अपनी माँ को इतना चहकता देख उसके दिल का सुकून अपने चरम पर पहुँच गया था जैसे उसकी जन्म-जन्मांतर की एकमात्र यही चाह आज वास्तविकता मे पूरी हो गई थी।
खाना खा चुकने के उपरान्त दोनों ने मिलकर डाइनिंग टेबल और किचन की सफाई की, वैशाली तो बर्तन भी मांजना शुरू कर देने वाली थी मगर अभिमन्यु के टोक देने पर दोनों वापस हॉल में लौट आते हैं।
"जाओ माँ अब कपड़े पहन लो, पापा आते ही होंगे" हॉल के सोफे पर अपने साथ अपनी माँ को भी बैठते देख अभिमन्यु ने कहा, पौने छः हो चुके थे और वह अभी भी बेखौफ घर के भीतर नंगी घूम रही थी।
"नही नही, मुझे नंगी ही रहना है ...मैं कपड़े नही पहनूँगी" बचपन मे अक्सर बड़ों के सामने जिस तरह छोटे बच्चे कपड़े ना पहनने की जिद मे अपने हाथ-पैर उछालते हुए आना-कानी करते है, बिलकुल उसी संजीदे अंदाज मे वैशाली भी उछल-कूद करते हुए बोली।
"माँ मजाक नही, पापा के लौटने का वक्त हो गया है" अभिमन्यु ने बेहद गंभीरतापूर्वक कहा, जिसके जवाब मे वैशाली अपनी गांड मटकाते हुए पुनः किचन की दिशा मे आगे बढ़ जाती है।
"बर्तन बाद मे धुल जाएंगे माँ, जाकर कपड़े पहन लो" अभिमन्यु का अगला कथन पूरा हुआ, तत्काल वैशाली अपनी जीभ निकालकर उसे चिढ़ाने लगी और ठीक उसी समय घर के मुख्य द्वार पर अकस्मात् हुई दस्तक से एकसाथ दोनों माँ-बेटे के पसीने छूट जाते हैं।
जाने क्या सोचकर वैशाली सहसा घर के मुख द्वार की ओर चलायमान हो गयी थी, जिसे देख अभिमन्यु बिजली की गति से दौड़ा और अपनी माँ के दरवाजे की कुण्डी की और बढ़े हाथ को कसकर थाम लेता है। उसने उसे बलपूर्वक पीछे खींचा, एतियातन उसके मुँह को दबाया मगर जैसे वैशाली अपना आपा खो चुकी थी। ज्यों-ज्यों अभिमन्यु उसे पीछे धकेलने का प्रयास करता, वह दूनी तेजी से पुनः आगे बढ़ने लगती और इसके साथ ही दरवाजे की दस्तक मे वृद्धि हो गई।
भय से कांप रहे अभिमन्यु को जब कुछ और नही सूझ पाता तो वह वैशाली को अपने साथ खींचता हुआ उसे डाइनिंग टेबल तक ले आया। टेबल पर रखे एक बड़े से चाकू को उठाकर उसने अपनी माँ के चेहरे को घूरा, जो उसे ऐसे बुरे हालात मे भी मुस्कुराता हुआ नजर आता है। वैशाली अपने हाथों से सहर्ष उसे दरवाजा खोलने का इशारा करती है और जिसे देख अभिमन्यु चाकू को अपनी मुट्ठी मे कसते हुए घर के मुख्य द्वार की ओर बढ़ जाता है। दोबारा उसने पीछे पलटकर नही देखा और दरवाजे पर हुई तीसरी दस्तक के उपरान्त दो-चार लंबी साँसें खींच वह दरवाजे को खोल देता है।
"ठक्क्क्!" दो विभिन्न ध्वनियाँ एकसाथ उसके कानों मे गूँजी तो लगा जैसे उसका सारा बोझ एकाएक हल्का हो गया हो, उसके अनुमानस्वरूप मुख द्वार को खोलने के साथ ही उसकी माँ ने अपने बेडरूम का दरवाजा बंद कर लिया था। उसके पिता को कोई शक ना हो इसलिए ना ही उसने अपने पिता के चेहरे को देखा और ना ही अपनी माँ के क्षणिक पहले बंद हुए बेडरूम के बंद दरवाजे पर अपनी नजर डाली, हॉल खाली पड़ा देख वह अनमनी प्रसन्नता से डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ जाता है।
"तैयार हो जाओ अभिमन्यु, हमसब मूवी देखने जा रहे हैं, डिनर भी बाहर ही करेंगे" अपने बेटे को डाइनिंग टेबल पर रखे फलों के ढ़ेर मे से सेब उठाते देख मणिक उसे बताता है।
"पापा कल मेरा एप्लाइड इंटरनल है, उन्होंने आज ही डिक्लेअर किया" अभिमन्यु हाथ मे पकड़े चाकू से सेब के टुकड़े काटते हुए बोला, अखंड घबराहट से वह खुद भी सेब की ही तरह लाल हो गया था।
"आप लोग जाओ, मुझे प्रेपरेशन करना है। एक्चुअली इंटरनल के मार्क्स कैरी होने हैं सो चांस नही लूँगा" उसने पिछले झूठे कथन मे जोड़ा, अपने पिता से बात करते वक्त अपने आप उसकी भाषा मे सुधार आ गया था मगर असल कारण तो कुछ और ही था और वह था अपराध बोध, अपने पिता के साथ जाने-अनजाने किया गया विश्वासघात। उसकी गैर मौजूदगी मे उसकी स्त्री के साथ किए पाप के स्मरणमात्र से अकस्मात् अभिमन्यु कुंठा से भर गया था और यकीनन तभी वह मणिक से अबतक अपनी आँखें मिला नही पाया था।
"ओह आप आ गए, मैं चाय बनाती हूँ" इसी बीच वैशाली भी अपने बेडरूम से बाहर निकल आती है, वह फौरन किचन की दिशा मे बढ़ते हुए बोली। रोटियां सेंकने के उपरान्त उसका अपने बेडरूम के भीतर जाने का शायद यही मकसद था कि वह मिनटों में कपड़े पहनकर पुनः बेडरूम से बाहर आ सकती थी।
"माँ को ले जाइए पापा, वैसे भी इन्होंने कई दिनों से थिएटर मे मूवी नही देखी और हाँ! मैं पिज्जा आर्डर कर लूँगा, आप लोग बाहर खा लीजियेगा" कहकर अभिमन्यु अपने कमरे की ओर रुख करने लगा।
"कहाँ मूवी-वूवी लेकर बैठ गए आप भी ..." किचन मे जाते-जाते अचानक रुक गई वैशाली ने ज्यों ही अपना मुँह खोला, अभिमन्यु बीच मे ही उसकी बात को काट देता है।
"अच्छा! पापा कई दिनों से माँ कह रही थीं कि आपके टूर से लौटने के बाद उन्हें मूवी देखने जाना है, आप ले जाओ माँ को मैं एडजस्ट कर लूँगा" अभिमन्यु भी अपने कमरे मे जाने के बजाए वहीं रुकते हुए बोला।
"खैर अब से मैं कभी टूर पर नही जाऊँगा, आज मैंने हेड डिपार्टमेंट को लैटर भी भेज दिया है" मणिक ऐलान करता है। उसके इस विस्फोटक फैसले से उसकी पत्नी और एकलौते बेटे पर क्या कुछ नही बीत सकती थी, वह कैसे जाना पाता क्योंकि उन दोनों के चेहरों पर ही वह घर का मुखिया सहसा बेहद मधुर मुस्कान छाती देख रहा था।
"तुम तैयार हो जाओ, अभिमन्यु के साथ मेरा नेक्स्ट वीकेंड का प्रॉमिस रहा" उसने दोबारा ऐलान किया। वैशाली अब पूरी तरह निरुत्तर थी, अपने पति के साथ तर्क-वितर्क वह पहले भी कहाँ कर पाती थी।
अपने माता-पिता के घर से बाहर निकलते ही अभिमन्यु की जो रुलाई फूटी, वह अगले आधे घंटे तक चलती रही। वह इस बात से दुखी था कि उसने अपनी माँ के साथ उनके पवित्र रिश्ते को दागदार किया था या इस बात से कि अब से वह अपनी माँ के साथ पाप करना जारी नही रख पाएगा क्योंकि उसका पिता हमेशा-हमेशा के लिए घर वापस लौट आया था, वह खुद नही जान पाता बस सोफे पर लेटा काफी देरतक सिसकता रहता है। कुछ सोचकर उसने खुद के लिए पिज्जा आर्डर किया तो जरूर मगर उसे खाने की उसकी इच्छा बिलकुल मर चुकी थी, पिज्जा वह ज्यों का त्यों डस्टबिन मे डाल देता है और डिब्बे को डाइनिंग टेबल पर छोड़ अंततः अपने कमरे के भीतर चला जाता है।
वहीं वैशाली की हालत भी कुछ कम खराब नही थी क्योंकि आज वह अपने पति के एक नए अवतार का एहसास कर रही थी। उसके जिस पति को अनुशाशन मे जीना ताउम्र पसंद आया था, थिएटर में उसके बगल मे बैठा उसका वही अनुशाशनप्रिय पति बेशर्मों की भांति उसे घड़ी-घड़ी चूमे जा रहा था। डिनर के वक्त भी कभी वह उसका हाथ पकड़ लेता तो कभी उसकी सुंदरता पर कविताएं सुनाने लगता। मणिक के भीतर आए इस बदलाव से वैशाली खुश तो थी मगर रह-रहकर उसका ध्यान उसके पति से हटकर उसके बेटे पर केंद्रित होता जा रहा था, वह चाहकर भी अभिमन्यु के विषय मे सोचना बंद नही कर पा रही थी।
घर लौटने के बाद मणिक हॉल के सोफे पर बैठ अपने जूते उतारने लगा, वैशाली अपने बेटे के बेडरूम मे झांकती है तो उसे गहरी नींद मे सोता पाती है। पति के सोफे से उठते ही उसे भी बेमन से उसके साथ उनके बेडरूम के भीतर जाना पड़ा, जिसके अंदर पहुँचते ही मणिक तत्काल उसे चूमने लगता है।
उस रात वैशाली जमकर चुदी। दिन मे तीन बार वह अपने बेटे के हाथों झड़ी थी, बाकी रही-सही कसर अब उसका पति पूरी कर रहा था। चुदते-चुदते वह पस्त हो चली थी, उसका अंग-अंग टूट चुका था, सुहागरात के बाद आज दूसरी बार उसकी चूत एकदम सुन्न पड़ गई मगर फिर भी वह तबतक चुदती रही जबतक मणिक ने उसे सचमुच संतुष्ट नही मान लिया और अंततः नग्न एक-दूसरे से चिपककर दोनों पति-पत्नी नींद के आगोश खो जाते हैं।