en.roksbi.ru के आदरणीय पाठिकाओं एवं पाठकों को तृष्णा का अभिनंदन.
कुछ समय पूर्व मेरे द्वारा सम्पादित श्वेतलाना अहोनेन की रचना कर रही हूँ.
इस वर्ष गर्मियों की वार्षिक छुट्टियों में मुझे उत्तराखंड के शहर रूड़की में अपने एक परिचित सम्बन्धी के घर उनकी लड़की के विवाह पर जाना पड़ा.
विवाह की रूढ़िवादी रीति रिवाजों को निभाने के लिए लड़के वालों के यहाँ से चार दिन के लिए आई बारात की महिलाओं की देख रेख की ज़िम्मेदारी मेरे सम्बन्धी ने मुझे दे दी. उन चार दिनों के दौरान उस बारात में आई महिलाओं की देख रेख के दौरान मेरा एक युवती सरिता से परिचय हुआ. उन चार दिनों में मेरी सरिता के साथ अच्छी खासी मित्रता हो गयी और हमें जब भी खाली समय मिलता तब हम दोनों बैठ कर बातें करती रहती.
विवाह के सम्पन्न होने के बाद जब सरिता वापिस जाने लगी तब उसने मुझे उसके घर आने का निमंत्रण दिया जिसे मैंने स्वीकार कर लिया.
मेरे सम्बन्धी की बेटी के विवाह हो जाने के दो दिनों के बाद जब मैं वापिस अपने घर जाने के लिए तैयार हो रही थी तभी सरिता का फोन आया और उसने एक बार फिर उसके घर आने के लिए आग्रह किया.
गाँव में रहने का अनुभव लेने एवं छुट्टियाँ के कुछ दिन सरिता के साथ बिताने के लिए मैंने घर जाने के कार्यक्रम में बदलाव किया तथा रूड़की से डौसनी की गाड़ी पकड़ कर उसके घर पहुँच गयी.
मैं आठ दिन तक सरिता के घर में रही और दिन में तो गाँव के रहन सहन को महसूस किया एवं किसान खेतों में कैसे काम करते हैं उनका अनुभव भी लिया.
सांझ के समय तथा देर रात तक सरिता और मैं बातें करती रहतीं तथा अपने परिवार एवं अतीत के अनुभवों को भी साझा करती रहती. उन्हीं देर रात की बातों में सरिता ने मेरे साथ अपने जीवन के सब से कड़वे सच एवं अनुभव को साझा किया जो मेरे मन को छू गया.
आज मैं उत्तराखंड के डौसनी गाँव में रहने वाली उसी सरिता के द्वारा वर्णित उसके जीवन में कड़वे सच एवं अनुभव का सम्पादित विवरण आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ.
सरिता ने अपने नवजात शिशु के साथ एक प्राकृतिक त्रासदी से बच कर निकलने के बाद कैसे अपने जीवन को फिर से स्थापित किया यह जानने के लिए उसी के शब्दों में पढ़िए निम्नलिखित रचना:
मेरे अभी तक के जीवन का सबसे ख़ुशी का दिन लगभग आठ माह पहले था क्योंकि तरुण ने वरुण को गाँव के शिशु मंदिर में दाखिल कराया था.
लेकिन मेरी ख़ुशी का वास्तविक कारण तो वरुण को शिशु मंदिर में दाखिल करवाते समय तरुण ने भरती फार्म में पिता के स्थान पर अपना नाम लिख कर उस अनाथ बालक को सनाथ बना दिया था.
आपको थोड़ा असमंजस हो रहा होगा की मैं बिना कोई परिचय दिए आप सब को क्या बता रही हूँ लेकिन मेरी जीवन में वरुण एवं तरुण दोनों का बहुत ही महत्व है.
लीजिये मैं आप सब को अपना परिचय दे कर आपकी नाराज़गी को दूर कर देती हूँ.
मेरा नाम सरिता है, मेरी आयु पच्चीस वर्ष है और जैसा कि तृष्णा दीदी ने ऊपर उल्लेख किया है मैं उत्तराखंड के हरिद्वार जिले के एक गाँव डौसनी में वरुण के साथ तरुण के घर में रहती हूँ.
आपको एक बार फिर असमंजस हो रहा होगा कि यह वरुण एवं तरुण कौन है और मेरा उनके साथ क्या सम्बन्ध है.
मैं बताना चाहूंगी की वरुण मेरा चार वर्ष आठ माह का पुत्र है जिसके लिए मैं जीवन के कई सिद्धांतों से समझौता करके अभी तक जीवित हूँ और शायद भविष्य में भी उसी के लिए जीवित रहूंगी.
तरुण एक वह इंसान है जिसने मेरे जीवन के सब से भयानक, कठिन एवं संकटमय समय में मुझे तथा मेरे पुत्र को आश्रय दिया था.
मेरे जीवन का वह घटना-क्रम जिसका उल्लेख मैं इस रचना में कर रही हूँ वह वरुण एवं तरुण से ही सम्बंधित एवं आधारित है.
मेरे जीवन के उस भयानक, कठिन एवं संकटमय समय का प्रारम्भ 16 जुलाई 2013 को हुआ जब केदारनाथ में प्राकृतिक त्रासदी घटी और रामबाड़ा में हमारा घर तहस-नहस हो गया.
मैं जीवन भर उस समय को न तो आज तक भूल पाई हूँ और न ही भविष्य में कभी भूल पाऊंगी.
उस त्रासदी में मुझे तथा मेरे पुत्र को छोड़ हमारे परिवार के बाकी सभी सदस्य गंगा की भेंट चढ़ गए और हमारा घर पूरा उसमें बह गया.
तीन दिनों तक मैं अपने सात माह के पुत्र को आँचल में छुपाये आंधी, तूफान और बरसात का सामना करते हुए उस पहाड़ी जंगल में भूखी प्यासी भटकती रही.
19 जुलाई 2013 को भारतीय वायुसेना के एक हेलीकाप्टर ने खोज अभियान के अंतर्गत मुझे जंगल में देखा और वहाँ से बचा कर हरिद्वार में एक त्रासदी पीड़ित शिविर में पहुँचा दिया. लेकिन वहां की अव्यवस्था, व्यभियाचार और वहां के एक अधिकारी की लालची दृष्टि एवं दुर्व्यवहार के कारण चार ही दिनों बाद मैं वहां से भाग निकली.
23 जुलाई 2013 की सुबह को बिना कुछ सोचे-समझे मैं उस शिविर से भाग कर हरिद्वार स्टेशन पर खड़ी एक रेलगाड़ी में बिना कुछ देखे-भाले बैठ गयी.
कुछ देर के बाद गाड़ी मुझे किसी अज्ञात गंतव्य की ओर ले कर चल पड़ी और मैं अपने बेटे को छाती से लगाये खिड़की से बाहर भागते हुए खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, घर-इमारतें तथा सड़कों-गलियों को देखती रही.
क्योंकि पैसे नहीं होने के कारण मैं बिना टिकट लिए ही गाड़ी में बैठ गयी थी इसलिए टिकट परीक्षक के डर के मारे मैं गाड़ी के दरवाज़े के पास ही बैठ गयी ताकि उसके आते ही किसी भी स्टेशन पर उतर जाऊं.
दोपहर के लगभग बारह बजे मैंने एक टिकट परीक्षक को यात्रियों की टिकट जांचते हुए देखा तो घबरा कर उस डिब्बे से दूसरे डिब्बे में चली गयी.
इतने में गाड़ी धीमी होकर रुक गयी, तब मैं बदहवासी में गाड़ी से उतर गयी और भागती हुई सामने के खेत की झाड़ियों में छुप गयी.
पांच मिनट के बाद जब गाड़ी वहाँ से चली गयी तब मैं झाड़ियों से बाहर निकली कर इधर-उधर देखा तो सिर्फ खेत ही दिखाई दिए.
क्योंकि मैं काफी भयभीत थी इसलिए अपने पुत्र को अपनी छाती से चिपका कर तेज़ी से खेतों के किनारे बनी पगडण्डी पर चल पड़ी. कुछ देर चलते रहने के बाद मैं एक बड़े से खेत के एक कोने में बने हुए एक छोटी सी मगर पक्की झोंपड़ी के सामने पहुंची.
तभी जोर से बिजली के चमकी और बादलों के गरजने के साथ बारिश भी शुरू हो गयी तब मैं भीगने से बचने के लिए उसी झोंपड़ी के बाहर बने बरामदे में पनाह ले ली. तेज हवा के झोंकों के साथ बरामदे में आ रही बौछार के छींटे मेरे बेटे के मुँह पर पड़ने तथा बरामदे के छप्पर पर गिर रहे पानी के शोर से बेटा डर कर रोने लगा.
वह काफी देर से भूखा भी था इसलिए उसे दूध पिलाने के लिए मैं सूखे स्थान की तलाश में उस घर के एक मात्र कमरे के अन्दर झांका और वहां किसी को न देख कर अंदर चली गयी.
कमरे के अंदर की एक दीवार के साथ में एक बहुत बड़ी चारपाई रखी थी जिस पर बिस्तर लगा हुआ था और एक कोने में एक मेज़ तथा कुर्सी रखी थी. मैं जल्दी से उस कुर्सी पर बैठ कर बेटे को दूध पिलाने लगी और अपना सिर घुमा कर कमरे में रखी वस्तुओं को देखने लगी.
दरवाज़े के साथ की दीवार में एक अलमारी बनी हुई थी जिसके किवाड़ बंद थे और उसके साथ वाले कोने में एक रस्सी बंधी थी जिस पर कुछ मर्दाना कपड़े टंगे हुए थे.
जब बेटा दूध पीते पीते सो गया तब मैंने उसे बिस्तर पर सुला कर कमरे की उस अलमारी को खोल कर देखा तो उसमें भी मर्दाना कपड़े ही पड़े हुए थे.
अलमारी बंद कर के मैं कमरे से बाहर निकली और बरामदे में खड़े होकर देखा कि बारिश बंद हो चुकी थी, बादल छंट गए थे और सूर्य निकल आया था.
मैं जब बरामदे के दूसरे सिरे की ओर कदम रखे तो उस कमरे के बगल एक पक्की रसोई बनी हुई थी जिसमें कूड़ा कबाड़ पड़ा हुआ था.
बरामदे के आखिर में पहुँच कर देखा की रसोई की बगल में एक छप्पर डाल कर एक तबेला बना रखा था. मैं कुछ क्षण वहीं खड़ी इधर-उधर देख रही थी तभी मुझे कुछ ही दूर लगे हुए नलकूप में से पानी चलते हुए दिखाई दिया.
जब मैंने थोड़ा ऊँचा हो कर उस ओर देखा तब मुझे एक जवान एवं हष्ट-पुष्ट पुरुष सिर्फ जांघिया पहने नलकूप के पानी के नीचे बैठा नहा रहा था.
मैं उस गोरे, मांसल तथा बलिष्ट शरीर वाले आकर्षक एवं मनमोहक पुरुष को देखने में मग्न हो गयी.
लगभग दस मिनट के बाद वह पुरुष नहा कर उठा और इधर-उधर देख कर अपने जांघिये को उतारा और पूर्ण नग्न हो कर फिर नीचे बैठ गया तथा अपने जांघिये को धोने लगा. जांघिये को धोने के बाद वह एक बार फिर खड़ा हुआ और नलकूप के पाइप पर लटक रहे तौलिये को उठा कर अपने शरीर को पौंछने लगा.
जब वह अपने शरीर को पौंछते हुए घूमा तो मुझे उसके जघन स्थल पर उगे हुए काले बालों के बीच में उसका तना हुआ लिंग और उसके नीचे लटकते हुए अंडकोष दिखाई दिये. इतनी दूर से उस लिंग के माप का सही अनुमान लगाना तो कठिन था लेकिन वह लिंग मेरे स्वर्गीय पति के लिंग की लम्बाई एवं मोटाई के बराबर ही लग रहा था. विशेष रूप से त्वचा से बाहर निकला हुआ उसका लिंग-मुंड सूर्य की रोशनी में चमक रहा था जो मुझे कुछ अधिक मोटा एवं बनावट में आकर्षक लगा.
तभी उस पुरुष ने तौलिये को अपनी कमर में बाँध लिया और धोये हुए गीले कपड़े उठा कर घर की ओर चल पड़ा.
उसको घर की ओर आते देख कर मैंने झट से बिस्तर से बेटे को गोद में उठा कर बाहर बरामदे में आ कर बैठ गयी.
झोंपड़ी के पास पहुँचते ही जैसे उसने मुझे देखा तो पूछा- तुम कौन हो? यहाँ क्या कर रही हो?
मैंने मायूस चहरा बनाते हुए कहा- मैं यहाँ से गुज़र रही थी तभी अचानक तेज़ बारिश आ गयी थी और मेरा बेटा रोने लगा. उसे बारिश से बचाने के लिए और उसकी भूख मिटाने के लिए यहाँ बैठ कर उसे दूध पिला रही थी.
मेरी बात सुन कर वह अपने तौलिये को सँभालते हुए बरामदे में बंधी हुई रस्सी पर धोये हुए कपड़े सूखने के लिए डाल दिए और कमरे में चला गया.
यह देखने के लिए कि वह अंदर क्या कर रहा है, मैं जिज्ञासा वश उठ कर उस कमरे के दरवाज़े की ओट में खड़ी होकर कमरे के अंदर देखने लगी. उसने कमरे में जाकर सबसे पहले अलमारी में से अपने कपड़े निकाल कर बिस्तर पर रखे और फिर तौलिया उतार कर रस्सी पर टांग दिया और जांघिया पहनने लगा.
उस समय भी उसका लिंग चेतना अवस्था में तना हुआ था और उसका लिंग-मुंड अपनी त्वचा से बाहर निकला हुआ था. इतनी करीब से उस सुन्दर और मनमोहक लिंग को देख कर मैं कुछ देर के लिए अपने सभी दुख भूल गयी और मेरे शरीर में झुर-झुरी सी होने लगी.
उस समय मेरा मन करने लगा कि मैं कमरे में जाकर उस लिंग को पकड़ कर चूम लूँ लेकिन मैंने अपनी भावनाओं को नियंत्रण में कर लिया.
जब उसका लिंग उसके जांघिया में छुप गया तब मैं वहां से हट कर बरामदे में वैसे ही बैठ गयी जैसे पहले बैठी थी. वहां बैठे बैठे मैंने उसके लिंग के माप का अनुमान लगाया की उसकी लम्बाई लगभग सात से आठ इंच के बीच और मोटाई दो से ढाई इंच के बीच तथा उसका लिंग-मुंड की मोटाई ढाई या तीन इंच होगी.
उस सुन्दर और मनमोहक लिंग को देख कर मैं वासना के जाल फंस गयी तथा इश्वर से प्राथना करने लगी कि इतने दुखों का सामना करने के बाद मुझे यहाँ तक पहुँचाया है तो अब मुझे यहीं पर बसा भी दे.
तभी वह पुरुष कपड़े पहन कर बाहर आया और बोला- तुम अभी तक यहीं बैठी हो? अब तो बारिश भी बंद है इसलिए तुमने जहां जाना है जल्दी से चली जाओ. बारिश फिर शुरू हो गयी तो दोनों फिर से भीग जाओगे.
उसकी बात सुन कर मेरी आँखों से अश्रु निकल आये और मैंने कहा- मुझे खुद नहीं मालूम कि मैंने कहाँ जाना है. मेरे जो ठिकाने थे, वे सब तो ईश्वर ने उजाड़ दिए है. तुम मेरी चिंता मत करो, मैं थोड़ी देर और आराम कर के जीवन भर भटकने के लिए यहाँ से चली जाऊँगी.
मेरी बात सुन कर वह थोड़ा ठिठका और मेरे पास बैठ कर पूछा- तुम यह कैसी बातें कर रही हो? तुम कौन हो और कहाँ रहती हो मुझे बताओ, मैं तुम्हें वहां छोड़ आऊंगा.
उसकी बात सुन कर मैंने उसको अपना परिचय दिया तथा अपनी पूरी गाथा सुनाई तो उसने कुछ गंभीर होते हुए कहा- यह तो ईश्वर ने तुम्हारे साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है लेकिन कहते हैं कि आज तक होनी को कोई भी नहीं टाल सका है. अब तुम्हारा आगे क्या करने का प्रयोजन है तथा मुझे बताओ कि मैं तुम्हारी सहायता कैसे कर सकता हूँ?
मैं बोली- मुझे तो सिर्फ इतना पता है कि अब मुझे सिर्फ इस बच्चे के लिए ही जीना है लेकिन यह नहीं मालूम उसके लिए क्या करूँ. अब तो जहां किस्मत ले जाएगी वहीं चली जाऊँगी. सहायता के प्रस्ताव के लिए तुम्हारा बहुत धन्यवाद.
फिर जब मैं जाने के लिए उठी तब वह बोला- ठहरो, मैं कुछ कहना चाहता हूँ. मेरा नाम तरुण प्रताप है और मैं भी इस दुनिया में अकेला हूँ. मैं अपने इन खेतों की देखभाल के लिए अधिकतर यहीं पर रहता हूँ. वैसे पास के गाँव डौसनी में मेरा पुश्तैनी घर है जहां मैं कभी कभी जा कर रहता हूँ. अगर तुम ठीक समझो तो अपने बच्चे के साथ वहाँ रह सकती हो. इसके बदले में तुम मेरे लिए उस घर की देखभाल और चौका बर्तन आदि तथा खेतों में मेरी सहायता कर दिया करना.
तरुण की बात सुन कर मैंने उसकी ओर संदिग्ध भाव से देखा तो वह तुरंत बोला- देखो, मैं एक सेवानिवृत्त फौजी हूँ और हमेशा सीधी बात ही करता हूँ. क्योंकि मुझे किसी स्त्री से कैसे बात करते हैं नहीं आती इसलिए मैंने तो तुम्हारी सहायता हेतु सीधी बात करी है. अगर तुम्हें मेरी बात बुरी लगी है तो मैं क्षमा मांगता हूँ और अपने शब्द वापिस लेता हूँ.
उसकी बात और सच्चाई सुन कर मैं बोली- अभी मैं बहुत विक्षुब्ध हूँ इसलिए मुझे सोचने के लिए कुछ समय चाहिए. अगर तुम्हारी सहमति हो तो क्या मैं कुछ देर यहाँ बैठ सकती हूँ?
उसने कहा- हाँ, तुम जब तक चाहो यहाँ बैठ सकती हो. मैं गाँव जा रहा हूँ, अगर तुम्हे अपने या बच्चे के लिए कुछ चाहिए तो बता दो, मैं लेता आऊंगा.
मैंने कहा- नहीं, मुझे कुछ भी नहीं चाहिए और शायद तुम्हारे वापिस आने पर मैं तुम्हे यहाँ मिलूं भी नहीं. अगर मुझे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार हुआ तभी यहाँ रुकूँगी और तभी अपनी आवशयकता की वस्तुओं के बारे में बताऊँगी.
इसके बाद तरुण वहाँ से चला गया और मैं वहीं बैठी उसके प्रस्ताव के बारे में विचार करते हुए सोच रही थी कि शायद मेरी प्राथना सुन कर ईश्वर ने तरुण को मेरे बच्चे का सहारा बनने के लिए भेजा है. अगर मैंने इस अवसर को छोड़ दिया तो शायद ईश्वर अप्रसन्न होकर आगे कभी कोई अवसर ही नहीं दे और मैं बेटे को ले कर जीवन भर भटकती रहूँ.
इस विचार के विपरीत मेरे मन में एक विचार आया कि अगर मैं यह प्रस्ताव को अभी अस्वीकार कर देती हूँ तो शायद हो सकता है कि आगे इससे भी अच्छा एवं बेहतर अवसर सामने आ जाये.
कुछ देर के लिए मैं इन्हीं विचारों से जूझ रही तभी मेरे मस्तिष्क में एक मुहावरा स्मरण हुआ कि ‘झाड़ी में बैठे दो पक्षियों से बेहतर तो हाथ में पकड़ा हुआ एक पक्षी ही होता है.’
जब मैंने उस दृष्टिकोण से सोचा तो मेरे मातृत्व ने समझाया कि अपने बच्चे को अनाथ से सनाथ बनाने के लिए तथा उसके उजले भविष्य के लिए मुझे इस अवसर को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए.
मेरे मातृत्व द्वारा दिए गए सुझाव तथा अपने भाग्य पर विश्वास करते हुए मैंने उसे अनाथ से सनाथ बनाने को अपना उद्देश्य बना लिया और यहीं रहने की स्वीकृति देने का निर्णय ले लिया.
इससे पहले कि मैं अपने लिए गए निर्णय पर पुनर्विचार करने की चेष्टा भी करती मुझे बेटे के रोने की आवाज़ सुनाई दी. मैं तुरंत बेटे को उठा कर कमरे में ले गयी तथा उसे बिस्तर पर लेट कर उसे दूध पिलाने के दौरान मुझे भी नींद आ गयी.
कुछ समय पूर्व मेरे द्वारा सम्पादित श्वेतलाना अहोनेन की रचना कर रही हूँ.
इस वर्ष गर्मियों की वार्षिक छुट्टियों में मुझे उत्तराखंड के शहर रूड़की में अपने एक परिचित सम्बन्धी के घर उनकी लड़की के विवाह पर जाना पड़ा.
विवाह की रूढ़िवादी रीति रिवाजों को निभाने के लिए लड़के वालों के यहाँ से चार दिन के लिए आई बारात की महिलाओं की देख रेख की ज़िम्मेदारी मेरे सम्बन्धी ने मुझे दे दी. उन चार दिनों के दौरान उस बारात में आई महिलाओं की देख रेख के दौरान मेरा एक युवती सरिता से परिचय हुआ. उन चार दिनों में मेरी सरिता के साथ अच्छी खासी मित्रता हो गयी और हमें जब भी खाली समय मिलता तब हम दोनों बैठ कर बातें करती रहती.
विवाह के सम्पन्न होने के बाद जब सरिता वापिस जाने लगी तब उसने मुझे उसके घर आने का निमंत्रण दिया जिसे मैंने स्वीकार कर लिया.
मेरे सम्बन्धी की बेटी के विवाह हो जाने के दो दिनों के बाद जब मैं वापिस अपने घर जाने के लिए तैयार हो रही थी तभी सरिता का फोन आया और उसने एक बार फिर उसके घर आने के लिए आग्रह किया.
गाँव में रहने का अनुभव लेने एवं छुट्टियाँ के कुछ दिन सरिता के साथ बिताने के लिए मैंने घर जाने के कार्यक्रम में बदलाव किया तथा रूड़की से डौसनी की गाड़ी पकड़ कर उसके घर पहुँच गयी.
मैं आठ दिन तक सरिता के घर में रही और दिन में तो गाँव के रहन सहन को महसूस किया एवं किसान खेतों में कैसे काम करते हैं उनका अनुभव भी लिया.
सांझ के समय तथा देर रात तक सरिता और मैं बातें करती रहतीं तथा अपने परिवार एवं अतीत के अनुभवों को भी साझा करती रहती. उन्हीं देर रात की बातों में सरिता ने मेरे साथ अपने जीवन के सब से कड़वे सच एवं अनुभव को साझा किया जो मेरे मन को छू गया.
आज मैं उत्तराखंड के डौसनी गाँव में रहने वाली उसी सरिता के द्वारा वर्णित उसके जीवन में कड़वे सच एवं अनुभव का सम्पादित विवरण आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ.
सरिता ने अपने नवजात शिशु के साथ एक प्राकृतिक त्रासदी से बच कर निकलने के बाद कैसे अपने जीवन को फिर से स्थापित किया यह जानने के लिए उसी के शब्दों में पढ़िए निम्नलिखित रचना:
मेरे अभी तक के जीवन का सबसे ख़ुशी का दिन लगभग आठ माह पहले था क्योंकि तरुण ने वरुण को गाँव के शिशु मंदिर में दाखिल कराया था.
लेकिन मेरी ख़ुशी का वास्तविक कारण तो वरुण को शिशु मंदिर में दाखिल करवाते समय तरुण ने भरती फार्म में पिता के स्थान पर अपना नाम लिख कर उस अनाथ बालक को सनाथ बना दिया था.
आपको थोड़ा असमंजस हो रहा होगा की मैं बिना कोई परिचय दिए आप सब को क्या बता रही हूँ लेकिन मेरी जीवन में वरुण एवं तरुण दोनों का बहुत ही महत्व है.
लीजिये मैं आप सब को अपना परिचय दे कर आपकी नाराज़गी को दूर कर देती हूँ.
मेरा नाम सरिता है, मेरी आयु पच्चीस वर्ष है और जैसा कि तृष्णा दीदी ने ऊपर उल्लेख किया है मैं उत्तराखंड के हरिद्वार जिले के एक गाँव डौसनी में वरुण के साथ तरुण के घर में रहती हूँ.
आपको एक बार फिर असमंजस हो रहा होगा कि यह वरुण एवं तरुण कौन है और मेरा उनके साथ क्या सम्बन्ध है.
मैं बताना चाहूंगी की वरुण मेरा चार वर्ष आठ माह का पुत्र है जिसके लिए मैं जीवन के कई सिद्धांतों से समझौता करके अभी तक जीवित हूँ और शायद भविष्य में भी उसी के लिए जीवित रहूंगी.
तरुण एक वह इंसान है जिसने मेरे जीवन के सब से भयानक, कठिन एवं संकटमय समय में मुझे तथा मेरे पुत्र को आश्रय दिया था.
मेरे जीवन का वह घटना-क्रम जिसका उल्लेख मैं इस रचना में कर रही हूँ वह वरुण एवं तरुण से ही सम्बंधित एवं आधारित है.
मेरे जीवन के उस भयानक, कठिन एवं संकटमय समय का प्रारम्भ 16 जुलाई 2013 को हुआ जब केदारनाथ में प्राकृतिक त्रासदी घटी और रामबाड़ा में हमारा घर तहस-नहस हो गया.
मैं जीवन भर उस समय को न तो आज तक भूल पाई हूँ और न ही भविष्य में कभी भूल पाऊंगी.
उस त्रासदी में मुझे तथा मेरे पुत्र को छोड़ हमारे परिवार के बाकी सभी सदस्य गंगा की भेंट चढ़ गए और हमारा घर पूरा उसमें बह गया.
तीन दिनों तक मैं अपने सात माह के पुत्र को आँचल में छुपाये आंधी, तूफान और बरसात का सामना करते हुए उस पहाड़ी जंगल में भूखी प्यासी भटकती रही.
19 जुलाई 2013 को भारतीय वायुसेना के एक हेलीकाप्टर ने खोज अभियान के अंतर्गत मुझे जंगल में देखा और वहाँ से बचा कर हरिद्वार में एक त्रासदी पीड़ित शिविर में पहुँचा दिया. लेकिन वहां की अव्यवस्था, व्यभियाचार और वहां के एक अधिकारी की लालची दृष्टि एवं दुर्व्यवहार के कारण चार ही दिनों बाद मैं वहां से भाग निकली.
23 जुलाई 2013 की सुबह को बिना कुछ सोचे-समझे मैं उस शिविर से भाग कर हरिद्वार स्टेशन पर खड़ी एक रेलगाड़ी में बिना कुछ देखे-भाले बैठ गयी.
कुछ देर के बाद गाड़ी मुझे किसी अज्ञात गंतव्य की ओर ले कर चल पड़ी और मैं अपने बेटे को छाती से लगाये खिड़की से बाहर भागते हुए खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, घर-इमारतें तथा सड़कों-गलियों को देखती रही.
क्योंकि पैसे नहीं होने के कारण मैं बिना टिकट लिए ही गाड़ी में बैठ गयी थी इसलिए टिकट परीक्षक के डर के मारे मैं गाड़ी के दरवाज़े के पास ही बैठ गयी ताकि उसके आते ही किसी भी स्टेशन पर उतर जाऊं.
दोपहर के लगभग बारह बजे मैंने एक टिकट परीक्षक को यात्रियों की टिकट जांचते हुए देखा तो घबरा कर उस डिब्बे से दूसरे डिब्बे में चली गयी.
इतने में गाड़ी धीमी होकर रुक गयी, तब मैं बदहवासी में गाड़ी से उतर गयी और भागती हुई सामने के खेत की झाड़ियों में छुप गयी.
पांच मिनट के बाद जब गाड़ी वहाँ से चली गयी तब मैं झाड़ियों से बाहर निकली कर इधर-उधर देखा तो सिर्फ खेत ही दिखाई दिए.
क्योंकि मैं काफी भयभीत थी इसलिए अपने पुत्र को अपनी छाती से चिपका कर तेज़ी से खेतों के किनारे बनी पगडण्डी पर चल पड़ी. कुछ देर चलते रहने के बाद मैं एक बड़े से खेत के एक कोने में बने हुए एक छोटी सी मगर पक्की झोंपड़ी के सामने पहुंची.
तभी जोर से बिजली के चमकी और बादलों के गरजने के साथ बारिश भी शुरू हो गयी तब मैं भीगने से बचने के लिए उसी झोंपड़ी के बाहर बने बरामदे में पनाह ले ली. तेज हवा के झोंकों के साथ बरामदे में आ रही बौछार के छींटे मेरे बेटे के मुँह पर पड़ने तथा बरामदे के छप्पर पर गिर रहे पानी के शोर से बेटा डर कर रोने लगा.
वह काफी देर से भूखा भी था इसलिए उसे दूध पिलाने के लिए मैं सूखे स्थान की तलाश में उस घर के एक मात्र कमरे के अन्दर झांका और वहां किसी को न देख कर अंदर चली गयी.
कमरे के अंदर की एक दीवार के साथ में एक बहुत बड़ी चारपाई रखी थी जिस पर बिस्तर लगा हुआ था और एक कोने में एक मेज़ तथा कुर्सी रखी थी. मैं जल्दी से उस कुर्सी पर बैठ कर बेटे को दूध पिलाने लगी और अपना सिर घुमा कर कमरे में रखी वस्तुओं को देखने लगी.
दरवाज़े के साथ की दीवार में एक अलमारी बनी हुई थी जिसके किवाड़ बंद थे और उसके साथ वाले कोने में एक रस्सी बंधी थी जिस पर कुछ मर्दाना कपड़े टंगे हुए थे.
जब बेटा दूध पीते पीते सो गया तब मैंने उसे बिस्तर पर सुला कर कमरे की उस अलमारी को खोल कर देखा तो उसमें भी मर्दाना कपड़े ही पड़े हुए थे.
अलमारी बंद कर के मैं कमरे से बाहर निकली और बरामदे में खड़े होकर देखा कि बारिश बंद हो चुकी थी, बादल छंट गए थे और सूर्य निकल आया था.
मैं जब बरामदे के दूसरे सिरे की ओर कदम रखे तो उस कमरे के बगल एक पक्की रसोई बनी हुई थी जिसमें कूड़ा कबाड़ पड़ा हुआ था.
बरामदे के आखिर में पहुँच कर देखा की रसोई की बगल में एक छप्पर डाल कर एक तबेला बना रखा था. मैं कुछ क्षण वहीं खड़ी इधर-उधर देख रही थी तभी मुझे कुछ ही दूर लगे हुए नलकूप में से पानी चलते हुए दिखाई दिया.
जब मैंने थोड़ा ऊँचा हो कर उस ओर देखा तब मुझे एक जवान एवं हष्ट-पुष्ट पुरुष सिर्फ जांघिया पहने नलकूप के पानी के नीचे बैठा नहा रहा था.
मैं उस गोरे, मांसल तथा बलिष्ट शरीर वाले आकर्षक एवं मनमोहक पुरुष को देखने में मग्न हो गयी.
लगभग दस मिनट के बाद वह पुरुष नहा कर उठा और इधर-उधर देख कर अपने जांघिये को उतारा और पूर्ण नग्न हो कर फिर नीचे बैठ गया तथा अपने जांघिये को धोने लगा. जांघिये को धोने के बाद वह एक बार फिर खड़ा हुआ और नलकूप के पाइप पर लटक रहे तौलिये को उठा कर अपने शरीर को पौंछने लगा.
जब वह अपने शरीर को पौंछते हुए घूमा तो मुझे उसके जघन स्थल पर उगे हुए काले बालों के बीच में उसका तना हुआ लिंग और उसके नीचे लटकते हुए अंडकोष दिखाई दिये. इतनी दूर से उस लिंग के माप का सही अनुमान लगाना तो कठिन था लेकिन वह लिंग मेरे स्वर्गीय पति के लिंग की लम्बाई एवं मोटाई के बराबर ही लग रहा था. विशेष रूप से त्वचा से बाहर निकला हुआ उसका लिंग-मुंड सूर्य की रोशनी में चमक रहा था जो मुझे कुछ अधिक मोटा एवं बनावट में आकर्षक लगा.
तभी उस पुरुष ने तौलिये को अपनी कमर में बाँध लिया और धोये हुए गीले कपड़े उठा कर घर की ओर चल पड़ा.
उसको घर की ओर आते देख कर मैंने झट से बिस्तर से बेटे को गोद में उठा कर बाहर बरामदे में आ कर बैठ गयी.
झोंपड़ी के पास पहुँचते ही जैसे उसने मुझे देखा तो पूछा- तुम कौन हो? यहाँ क्या कर रही हो?
मैंने मायूस चहरा बनाते हुए कहा- मैं यहाँ से गुज़र रही थी तभी अचानक तेज़ बारिश आ गयी थी और मेरा बेटा रोने लगा. उसे बारिश से बचाने के लिए और उसकी भूख मिटाने के लिए यहाँ बैठ कर उसे दूध पिला रही थी.
मेरी बात सुन कर वह अपने तौलिये को सँभालते हुए बरामदे में बंधी हुई रस्सी पर धोये हुए कपड़े सूखने के लिए डाल दिए और कमरे में चला गया.
यह देखने के लिए कि वह अंदर क्या कर रहा है, मैं जिज्ञासा वश उठ कर उस कमरे के दरवाज़े की ओट में खड़ी होकर कमरे के अंदर देखने लगी. उसने कमरे में जाकर सबसे पहले अलमारी में से अपने कपड़े निकाल कर बिस्तर पर रखे और फिर तौलिया उतार कर रस्सी पर टांग दिया और जांघिया पहनने लगा.
उस समय भी उसका लिंग चेतना अवस्था में तना हुआ था और उसका लिंग-मुंड अपनी त्वचा से बाहर निकला हुआ था. इतनी करीब से उस सुन्दर और मनमोहक लिंग को देख कर मैं कुछ देर के लिए अपने सभी दुख भूल गयी और मेरे शरीर में झुर-झुरी सी होने लगी.
उस समय मेरा मन करने लगा कि मैं कमरे में जाकर उस लिंग को पकड़ कर चूम लूँ लेकिन मैंने अपनी भावनाओं को नियंत्रण में कर लिया.
जब उसका लिंग उसके जांघिया में छुप गया तब मैं वहां से हट कर बरामदे में वैसे ही बैठ गयी जैसे पहले बैठी थी. वहां बैठे बैठे मैंने उसके लिंग के माप का अनुमान लगाया की उसकी लम्बाई लगभग सात से आठ इंच के बीच और मोटाई दो से ढाई इंच के बीच तथा उसका लिंग-मुंड की मोटाई ढाई या तीन इंच होगी.
उस सुन्दर और मनमोहक लिंग को देख कर मैं वासना के जाल फंस गयी तथा इश्वर से प्राथना करने लगी कि इतने दुखों का सामना करने के बाद मुझे यहाँ तक पहुँचाया है तो अब मुझे यहीं पर बसा भी दे.
तभी वह पुरुष कपड़े पहन कर बाहर आया और बोला- तुम अभी तक यहीं बैठी हो? अब तो बारिश भी बंद है इसलिए तुमने जहां जाना है जल्दी से चली जाओ. बारिश फिर शुरू हो गयी तो दोनों फिर से भीग जाओगे.
उसकी बात सुन कर मेरी आँखों से अश्रु निकल आये और मैंने कहा- मुझे खुद नहीं मालूम कि मैंने कहाँ जाना है. मेरे जो ठिकाने थे, वे सब तो ईश्वर ने उजाड़ दिए है. तुम मेरी चिंता मत करो, मैं थोड़ी देर और आराम कर के जीवन भर भटकने के लिए यहाँ से चली जाऊँगी.
मेरी बात सुन कर वह थोड़ा ठिठका और मेरे पास बैठ कर पूछा- तुम यह कैसी बातें कर रही हो? तुम कौन हो और कहाँ रहती हो मुझे बताओ, मैं तुम्हें वहां छोड़ आऊंगा.
उसकी बात सुन कर मैंने उसको अपना परिचय दिया तथा अपनी पूरी गाथा सुनाई तो उसने कुछ गंभीर होते हुए कहा- यह तो ईश्वर ने तुम्हारे साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है लेकिन कहते हैं कि आज तक होनी को कोई भी नहीं टाल सका है. अब तुम्हारा आगे क्या करने का प्रयोजन है तथा मुझे बताओ कि मैं तुम्हारी सहायता कैसे कर सकता हूँ?
मैं बोली- मुझे तो सिर्फ इतना पता है कि अब मुझे सिर्फ इस बच्चे के लिए ही जीना है लेकिन यह नहीं मालूम उसके लिए क्या करूँ. अब तो जहां किस्मत ले जाएगी वहीं चली जाऊँगी. सहायता के प्रस्ताव के लिए तुम्हारा बहुत धन्यवाद.
फिर जब मैं जाने के लिए उठी तब वह बोला- ठहरो, मैं कुछ कहना चाहता हूँ. मेरा नाम तरुण प्रताप है और मैं भी इस दुनिया में अकेला हूँ. मैं अपने इन खेतों की देखभाल के लिए अधिकतर यहीं पर रहता हूँ. वैसे पास के गाँव डौसनी में मेरा पुश्तैनी घर है जहां मैं कभी कभी जा कर रहता हूँ. अगर तुम ठीक समझो तो अपने बच्चे के साथ वहाँ रह सकती हो. इसके बदले में तुम मेरे लिए उस घर की देखभाल और चौका बर्तन आदि तथा खेतों में मेरी सहायता कर दिया करना.
तरुण की बात सुन कर मैंने उसकी ओर संदिग्ध भाव से देखा तो वह तुरंत बोला- देखो, मैं एक सेवानिवृत्त फौजी हूँ और हमेशा सीधी बात ही करता हूँ. क्योंकि मुझे किसी स्त्री से कैसे बात करते हैं नहीं आती इसलिए मैंने तो तुम्हारी सहायता हेतु सीधी बात करी है. अगर तुम्हें मेरी बात बुरी लगी है तो मैं क्षमा मांगता हूँ और अपने शब्द वापिस लेता हूँ.
उसकी बात और सच्चाई सुन कर मैं बोली- अभी मैं बहुत विक्षुब्ध हूँ इसलिए मुझे सोचने के लिए कुछ समय चाहिए. अगर तुम्हारी सहमति हो तो क्या मैं कुछ देर यहाँ बैठ सकती हूँ?
उसने कहा- हाँ, तुम जब तक चाहो यहाँ बैठ सकती हो. मैं गाँव जा रहा हूँ, अगर तुम्हे अपने या बच्चे के लिए कुछ चाहिए तो बता दो, मैं लेता आऊंगा.
मैंने कहा- नहीं, मुझे कुछ भी नहीं चाहिए और शायद तुम्हारे वापिस आने पर मैं तुम्हे यहाँ मिलूं भी नहीं. अगर मुझे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार हुआ तभी यहाँ रुकूँगी और तभी अपनी आवशयकता की वस्तुओं के बारे में बताऊँगी.
इसके बाद तरुण वहाँ से चला गया और मैं वहीं बैठी उसके प्रस्ताव के बारे में विचार करते हुए सोच रही थी कि शायद मेरी प्राथना सुन कर ईश्वर ने तरुण को मेरे बच्चे का सहारा बनने के लिए भेजा है. अगर मैंने इस अवसर को छोड़ दिया तो शायद ईश्वर अप्रसन्न होकर आगे कभी कोई अवसर ही नहीं दे और मैं बेटे को ले कर जीवन भर भटकती रहूँ.
इस विचार के विपरीत मेरे मन में एक विचार आया कि अगर मैं यह प्रस्ताव को अभी अस्वीकार कर देती हूँ तो शायद हो सकता है कि आगे इससे भी अच्छा एवं बेहतर अवसर सामने आ जाये.
कुछ देर के लिए मैं इन्हीं विचारों से जूझ रही तभी मेरे मस्तिष्क में एक मुहावरा स्मरण हुआ कि ‘झाड़ी में बैठे दो पक्षियों से बेहतर तो हाथ में पकड़ा हुआ एक पक्षी ही होता है.’
जब मैंने उस दृष्टिकोण से सोचा तो मेरे मातृत्व ने समझाया कि अपने बच्चे को अनाथ से सनाथ बनाने के लिए तथा उसके उजले भविष्य के लिए मुझे इस अवसर को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए.
मेरे मातृत्व द्वारा दिए गए सुझाव तथा अपने भाग्य पर विश्वास करते हुए मैंने उसे अनाथ से सनाथ बनाने को अपना उद्देश्य बना लिया और यहीं रहने की स्वीकृति देने का निर्णय ले लिया.
इससे पहले कि मैं अपने लिए गए निर्णय पर पुनर्विचार करने की चेष्टा भी करती मुझे बेटे के रोने की आवाज़ सुनाई दी. मैं तुरंत बेटे को उठा कर कमरे में ले गयी तथा उसे बिस्तर पर लेट कर उसे दूध पिलाने के दौरान मुझे भी नींद आ गयी.