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Incest माँ ने अनाथ बेटे को सनाथ बनाया

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Incest माँ ने अनाथ बेटे को सनाथ बनाया
virat singh12 Offline
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#1
21-11-2017, 11:32 PM (This post was last modified: 15-07-2018, 11:22 PM by rajbr1981.)
en.roksbi.ru के आदरणीय पाठिकाओं एवं पाठकों को तृष्णा का अभिनंदन.
कुछ समय पूर्व मेरे द्वारा सम्पादित श्वेतलाना अहोनेन की रचना कर रही हूँ.

इस वर्ष गर्मियों की वार्षिक छुट्टियों में मुझे उत्तराखंड के शहर रूड़की में अपने एक परिचित सम्बन्धी के घर उनकी लड़की के विवाह पर जाना पड़ा.
विवाह की रूढ़िवादी रीति रिवाजों को निभाने के लिए लड़के वालों के यहाँ से चार दिन के लिए आई बारात की महिलाओं की देख रेख की ज़िम्मेदारी मेरे सम्बन्धी ने मुझे दे दी. उन चार दिनों के दौरान उस बारात में आई महिलाओं की देख रेख के दौरान मेरा एक युवती सरिता से परिचय हुआ. उन चार दिनों में मेरी सरिता के साथ अच्छी खासी मित्रता हो गयी और हमें जब भी खाली समय मिलता तब हम दोनों बैठ कर बातें करती रहती.

विवाह के सम्पन्न होने के बाद जब सरिता वापिस जाने लगी तब उसने मुझे उसके घर आने का निमंत्रण दिया जिसे मैंने स्वीकार कर लिया.
मेरे सम्बन्धी की बेटी के विवाह हो जाने के दो दिनों के बाद जब मैं वापिस अपने घर जाने के लिए तैयार हो रही थी तभी सरिता का फोन आया और उसने एक बार फिर उसके घर आने के लिए आग्रह किया.

गाँव में रहने का अनुभव लेने एवं छुट्टियाँ के कुछ दिन सरिता के साथ बिताने के लिए मैंने घर जाने के कार्यक्रम में बदलाव किया तथा रूड़की से डौसनी की गाड़ी पकड़ कर उसके घर पहुँच गयी.
मैं आठ दिन तक सरिता के घर में रही और दिन में तो गाँव के रहन सहन को महसूस किया एवं किसान खेतों में कैसे काम करते हैं उनका अनुभव भी लिया.


सांझ के समय तथा देर रात तक सरिता और मैं बातें करती रहतीं तथा अपने परिवार एवं अतीत के अनुभवों को भी साझा करती रहती. उन्हीं देर रात की बातों में सरिता ने मेरे साथ अपने जीवन के सब से कड़वे सच एवं अनुभव को साझा किया जो मेरे मन को छू गया.
आज मैं उत्तराखंड के डौसनी गाँव में रहने वाली उसी सरिता के द्वारा वर्णित उसके जीवन में कड़वे सच एवं अनुभव का सम्पादित विवरण आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ.
सरिता ने अपने नवजात शिशु के साथ एक प्राकृतिक त्रासदी से बच कर निकलने के बाद कैसे अपने जीवन को फिर से स्थापित किया यह जानने के लिए उसी के शब्दों में पढ़िए निम्नलिखित रचना:
मेरे अभी तक के जीवन का सबसे ख़ुशी का दिन लगभग आठ माह पहले था क्योंकि तरुण ने वरुण को गाँव के शिशु मंदिर में दाखिल कराया था.
लेकिन मेरी ख़ुशी का वास्तविक कारण तो वरुण को शिशु मंदिर में दाखिल करवाते समय तरुण ने भरती फार्म में पिता के स्थान पर अपना नाम लिख कर उस अनाथ बालक को सनाथ बना दिया था.
आपको थोड़ा असमंजस हो रहा होगा की मैं बिना कोई परिचय दिए आप सब को क्या बता रही हूँ लेकिन मेरी जीवन में वरुण एवं तरुण दोनों का बहुत ही महत्व है.
लीजिये मैं आप सब को अपना परिचय दे कर आपकी नाराज़गी को दूर कर देती हूँ.

मेरा नाम सरिता है, मेरी आयु पच्चीस वर्ष है और जैसा कि तृष्णा दीदी ने ऊपर उल्लेख किया है मैं उत्तराखंड के हरिद्वार जिले के एक गाँव डौसनी में वरुण के साथ तरुण के घर में रहती हूँ.
आपको एक बार फिर असमंजस हो रहा होगा कि यह वरुण एवं तरुण कौन है और मेरा उनके साथ क्या सम्बन्ध है.

मैं बताना चाहूंगी की वरुण मेरा चार वर्ष आठ माह का पुत्र है जिसके लिए मैं जीवन के कई सिद्धांतों से समझौता करके अभी तक जीवित हूँ और शायद भविष्य में भी उसी के लिए जीवित रहूंगी.
तरुण एक वह इंसान है जिसने मेरे जीवन के सब से भयानक, कठिन एवं संकटमय समय में मुझे तथा मेरे पुत्र को आश्रय दिया था.
मेरे जीवन का वह घटना-क्रम जिसका उल्लेख मैं इस रचना में कर रही हूँ वह वरुण एवं तरुण से ही सम्बंधित एवं आधारित है.

मेरे जीवन के उस भयानक, कठिन एवं संकटमय समय का प्रारम्भ 16 जुलाई 2013 को हुआ जब केदारनाथ में प्राकृतिक त्रासदी घटी और रामबाड़ा में हमारा घर तहस-नहस हो गया.
मैं जीवन भर उस समय को न तो आज तक भूल पाई हूँ और न ही भविष्य में कभी भूल पाऊंगी.
उस त्रासदी में मुझे तथा मेरे पुत्र को छोड़ हमारे परिवार के बाकी सभी सदस्य गंगा की भेंट चढ़ गए और हमारा घर पूरा उसमें बह गया.

तीन दिनों तक मैं अपने सात माह के पुत्र को आँचल में छुपाये आंधी, तूफान और बरसात का सामना करते हुए उस पहाड़ी जंगल में भूखी प्यासी भटकती रही.
19 जुलाई 2013 को भारतीय वायुसेना के एक हेलीकाप्टर ने खोज अभियान के अंतर्गत मुझे जंगल में देखा और वहाँ से बचा कर हरिद्वार में एक त्रासदी पीड़ित शिविर में पहुँचा दिया. लेकिन वहां की अव्यवस्था, व्यभियाचार और वहां के एक अधिकारी की लालची दृष्टि एवं दुर्व्यवहार के कारण चार ही दिनों बाद मैं वहां से भाग निकली.

23 जुलाई 2013 की सुबह को बिना कुछ सोचे-समझे मैं उस शिविर से भाग कर हरिद्वार स्टेशन पर खड़ी एक रेलगाड़ी में बिना कुछ देखे-भाले बैठ गयी.
कुछ देर के बाद गाड़ी मुझे किसी अज्ञात गंतव्य की ओर ले कर चल पड़ी और मैं अपने बेटे को छाती से लगाये खिड़की से बाहर भागते हुए खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, घर-इमारतें तथा सड़कों-गलियों को देखती रही.
क्योंकि पैसे नहीं होने के कारण मैं बिना टिकट लिए ही गाड़ी में बैठ गयी थी इसलिए टिकट परीक्षक के डर के मारे मैं गाड़ी के दरवाज़े के पास ही बैठ गयी ताकि उसके आते ही किसी भी स्टेशन पर उतर जाऊं.

दोपहर के लगभग बारह बजे मैंने एक टिकट परीक्षक को यात्रियों की टिकट जांचते हुए देखा तो घबरा कर उस डिब्बे से दूसरे डिब्बे में चली गयी.
इतने में गाड़ी धीमी होकर रुक गयी, तब मैं बदहवासी में गाड़ी से उतर गयी और भागती हुई सामने के खेत की झाड़ियों में छुप गयी.
पांच मिनट के बाद जब गाड़ी वहाँ से चली गयी तब मैं झाड़ियों से बाहर निकली कर इधर-उधर देखा तो सिर्फ खेत ही दिखाई दिए.

क्योंकि मैं काफी भयभीत थी इसलिए अपने पुत्र को अपनी छाती से चिपका कर तेज़ी से खेतों के किनारे बनी पगडण्डी पर चल पड़ी. कुछ देर चलते रहने के बाद मैं एक बड़े से खेत के एक कोने में बने हुए एक छोटी सी मगर पक्की झोंपड़ी के सामने पहुंची.
तभी जोर से बिजली के चमकी और बादलों के गरजने के साथ बारिश भी शुरू हो गयी तब मैं भीगने से बचने के लिए उसी झोंपड़ी के बाहर बने बरामदे में पनाह ले ली. तेज हवा के झोंकों के साथ बरामदे में आ रही बौछार के छींटे मेरे बेटे के मुँह पर पड़ने तथा बरामदे के छप्पर पर गिर रहे पानी के शोर से बेटा डर कर रोने लगा.
वह काफी देर से भूखा भी था इसलिए उसे दूध पिलाने के लिए मैं सूखे स्थान की तलाश में उस घर के एक मात्र कमरे के अन्दर झांका और वहां किसी को न देख कर अंदर चली गयी.

कमरे के अंदर की एक दीवार के साथ में एक बहुत बड़ी चारपाई रखी थी जिस पर बिस्तर लगा हुआ था और एक कोने में एक मेज़ तथा कुर्सी रखी थी. मैं जल्दी से उस कुर्सी पर बैठ कर बेटे को दूध पिलाने लगी और अपना सिर घुमा कर कमरे में रखी वस्तुओं को देखने लगी.
दरवाज़े के साथ की दीवार में एक अलमारी बनी हुई थी जिसके किवाड़ बंद थे और उसके साथ वाले कोने में एक रस्सी बंधी थी जिस पर कुछ मर्दाना कपड़े टंगे हुए थे.
जब बेटा दूध पीते पीते सो गया तब मैंने उसे बिस्तर पर सुला कर कमरे की उस अलमारी को खोल कर देखा तो उसमें भी मर्दाना कपड़े ही पड़े हुए थे.

अलमारी बंद कर के मैं कमरे से बाहर निकली और बरामदे में खड़े होकर देखा कि बारिश बंद हो चुकी थी, बादल छंट गए थे और सूर्य निकल आया था.
मैं जब बरामदे के दूसरे सिरे की ओर कदम रखे तो उस कमरे के बगल एक पक्की रसोई बनी हुई थी जिसमें कूड़ा कबाड़ पड़ा हुआ था.

बरामदे के आखिर में पहुँच कर देखा की रसोई की बगल में एक छप्पर डाल कर एक तबेला बना रखा था. मैं कुछ क्षण वहीं खड़ी इधर-उधर देख रही थी तभी मुझे कुछ ही दूर लगे हुए नलकूप में से पानी चलते हुए दिखाई दिया.
जब मैंने थोड़ा ऊँचा हो कर उस ओर देखा तब मुझे एक जवान एवं हष्ट-पुष्ट पुरुष सिर्फ जांघिया पहने नलकूप के पानी के नीचे बैठा नहा रहा था.
मैं उस गोरे, मांसल तथा बलिष्ट शरीर वाले आकर्षक एवं मनमोहक पुरुष को देखने में मग्न हो गयी.

लगभग दस मिनट के बाद वह पुरुष नहा कर उठा और इधर-उधर देख कर अपने जांघिये को उतारा और पूर्ण नग्न हो कर फिर नीचे बैठ गया तथा अपने जांघिये को धोने लगा. जांघिये को धोने के बाद वह एक बार फिर खड़ा हुआ और नलकूप के पाइप पर लटक रहे तौलिये को उठा कर अपने शरीर को पौंछने लगा.
जब वह अपने शरीर को पौंछते हुए घूमा तो मुझे उसके जघन स्थल पर उगे हुए काले बालों के बीच में उसका तना हुआ लिंग और उसके नीचे लटकते हुए अंडकोष दिखाई दिये. इतनी दूर से उस लिंग के माप का सही अनुमान लगाना तो कठिन था लेकिन वह लिंग मेरे स्वर्गीय पति के लिंग की लम्बाई एवं मोटाई के बराबर ही लग रहा था. विशेष रूप से त्वचा से बाहर निकला हुआ उसका लिंग-मुंड सूर्य की रोशनी में चमक रहा था जो मुझे कुछ अधिक मोटा एवं बनावट में आकर्षक लगा.
तभी उस पुरुष ने तौलिये को अपनी कमर में बाँध लिया और धोये हुए गीले कपड़े उठा कर घर की ओर चल पड़ा.
उसको घर की ओर आते देख कर मैंने झट से बिस्तर से बेटे को गोद में उठा कर बाहर बरामदे में आ कर बैठ गयी.

झोंपड़ी के पास पहुँचते ही जैसे उसने मुझे देखा तो पूछा- तुम कौन हो? यहाँ क्या कर रही हो?
मैंने मायूस चहरा बनाते हुए कहा- मैं यहाँ से गुज़र रही थी तभी अचानक तेज़ बारिश आ गयी थी और मेरा बेटा रोने लगा. उसे बारिश से बचाने के लिए और उसकी भूख मिटाने के लिए यहाँ बैठ कर उसे दूध पिला रही थी.

मेरी बात सुन कर वह अपने तौलिये को सँभालते हुए बरामदे में बंधी हुई रस्सी पर धोये हुए कपड़े सूखने के लिए डाल दिए और कमरे में चला गया.
यह देखने के लिए कि वह अंदर क्या कर रहा है, मैं जिज्ञासा वश उठ कर उस कमरे के दरवाज़े की ओट में खड़ी होकर कमरे के अंदर देखने लगी. उसने कमरे में जाकर सबसे पहले अलमारी में से अपने कपड़े निकाल कर बिस्तर पर रखे और फिर तौलिया उतार कर रस्सी पर टांग दिया और जांघिया पहनने लगा.

उस समय भी उसका लिंग चेतना अवस्था में तना हुआ था और उसका लिंग-मुंड अपनी त्वचा से बाहर निकला हुआ था. इतनी करीब से उस सुन्दर और मनमोहक लिंग को देख कर मैं कुछ देर के लिए अपने सभी दुख भूल गयी और मेरे शरीर में झुर-झुरी सी होने लगी.
उस समय मेरा मन करने लगा कि मैं कमरे में जाकर उस लिंग को पकड़ कर चूम लूँ लेकिन मैंने अपनी भावनाओं को नियंत्रण में कर लिया.

जब उसका लिंग उसके जांघिया में छुप गया तब मैं वहां से हट कर बरामदे में वैसे ही बैठ गयी जैसे पहले बैठी थी. वहां बैठे बैठे मैंने उसके लिंग के माप का अनुमान लगाया की उसकी लम्बाई लगभग सात से आठ इंच के बीच और मोटाई दो से ढाई इंच के बीच तथा उसका लिंग-मुंड की मोटाई ढाई या तीन इंच होगी.
उस सुन्दर और मनमोहक लिंग को देख कर मैं वासना के जाल फंस गयी तथा इश्वर से प्राथना करने लगी कि इतने दुखों का सामना करने के बाद मुझे यहाँ तक पहुँचाया है तो अब मुझे यहीं पर बसा भी दे.

तभी वह पुरुष कपड़े पहन कर बाहर आया और बोला- तुम अभी तक यहीं बैठी हो? अब तो बारिश भी बंद है इसलिए तुमने जहां जाना है जल्दी से चली जाओ. बारिश फिर शुरू हो गयी तो दोनों फिर से भीग जाओगे.
उसकी बात सुन कर मेरी आँखों से अश्रु निकल आये और मैंने कहा- मुझे खुद नहीं मालूम कि मैंने कहाँ जाना है. मेरे जो ठिकाने थे, वे सब तो ईश्वर ने उजाड़ दिए है. तुम मेरी चिंता मत करो, मैं थोड़ी देर और आराम कर के जीवन भर भटकने के लिए यहाँ से चली जाऊँगी.

मेरी बात सुन कर वह थोड़ा ठिठका और मेरे पास बैठ कर पूछा- तुम यह कैसी बातें कर रही हो? तुम कौन हो और कहाँ रहती हो मुझे बताओ, मैं तुम्हें वहां छोड़ आऊंगा.
उसकी बात सुन कर मैंने उसको अपना परिचय दिया तथा अपनी पूरी गाथा सुनाई तो उसने कुछ गंभीर होते हुए कहा- यह तो ईश्वर ने तुम्हारे साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है लेकिन कहते हैं कि आज तक होनी को कोई भी नहीं टाल सका है. अब तुम्हारा आगे क्या करने का प्रयोजन है तथा मुझे बताओ कि मैं तुम्हारी सहायता कैसे कर सकता हूँ?

मैं बोली- मुझे तो सिर्फ इतना पता है कि अब मुझे सिर्फ इस बच्चे के लिए ही जीना है लेकिन यह नहीं मालूम उसके लिए क्या करूँ. अब तो जहां किस्मत ले जाएगी वहीं चली जाऊँगी. सहायता के प्रस्ताव के लिए तुम्हारा बहुत धन्यवाद.
फिर जब मैं जाने के लिए उठी तब वह बोला- ठहरो, मैं कुछ कहना चाहता हूँ. मेरा नाम तरुण प्रताप है और मैं भी इस दुनिया में अकेला हूँ. मैं अपने इन खेतों की देखभाल के लिए अधिकतर यहीं पर रहता हूँ. वैसे पास के गाँव डौसनी में मेरा पुश्तैनी घर है जहां मैं कभी कभी जा कर रहता हूँ. अगर तुम ठीक समझो तो अपने बच्चे के साथ वहाँ रह सकती हो. इसके बदले में तुम मेरे लिए उस घर की देखभाल और चौका बर्तन आदि तथा खेतों में मेरी सहायता कर दिया करना.

तरुण की बात सुन कर मैंने उसकी ओर संदिग्ध भाव से देखा तो वह तुरंत बोला- देखो, मैं एक सेवानिवृत्त फौजी हूँ और हमेशा सीधी बात ही करता हूँ. क्योंकि मुझे किसी स्त्री से कैसे बात करते हैं नहीं आती इसलिए मैंने तो तुम्हारी सहायता हेतु सीधी बात करी है. अगर तुम्हें मेरी बात बुरी लगी है तो मैं क्षमा मांगता हूँ और अपने शब्द वापिस लेता हूँ.
उसकी बात और सच्चाई सुन कर मैं बोली- अभी मैं बहुत विक्षुब्ध हूँ इसलिए मुझे सोचने के लिए कुछ समय चाहिए. अगर तुम्हारी सहमति हो तो क्या मैं कुछ देर यहाँ बैठ सकती हूँ?
उसने कहा- हाँ, तुम जब तक चाहो यहाँ बैठ सकती हो. मैं गाँव जा रहा हूँ, अगर तुम्हे अपने या बच्चे के लिए कुछ चाहिए तो बता दो, मैं लेता आऊंगा.
मैंने कहा- नहीं, मुझे कुछ भी नहीं चाहिए और शायद तुम्हारे वापिस आने पर मैं तुम्हे यहाँ मिलूं भी नहीं. अगर मुझे तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार हुआ तभी यहाँ रुकूँगी और तभी अपनी आवशयकता की वस्तुओं के बारे में बताऊँगी.

इसके बाद तरुण वहाँ से चला गया और मैं वहीं बैठी उसके प्रस्ताव के बारे में विचार करते हुए सोच रही थी कि शायद मेरी प्राथना सुन कर ईश्वर ने तरुण को मेरे बच्चे का सहारा बनने के लिए भेजा है. अगर मैंने इस अवसर को छोड़ दिया तो शायद ईश्वर अप्रसन्न होकर आगे कभी कोई अवसर ही नहीं दे और मैं बेटे को ले कर जीवन भर भटकती रहूँ.
इस विचार के विपरीत मेरे मन में एक विचार आया कि अगर मैं यह प्रस्ताव को अभी अस्वीकार कर देती हूँ तो शायद हो सकता है कि आगे इससे भी अच्छा एवं बेहतर अवसर सामने आ जाये.
कुछ देर के लिए मैं इन्हीं विचारों से जूझ रही तभी मेरे मस्तिष्क में एक मुहावरा स्मरण हुआ कि ‘झाड़ी में बैठे दो पक्षियों से बेहतर तो हाथ में पकड़ा हुआ एक पक्षी ही होता है.’
जब मैंने उस दृष्टिकोण से सोचा तो मेरे मातृत्व ने समझाया कि अपने बच्चे को अनाथ से सनाथ बनाने के लिए तथा उसके उजले भविष्य के लिए मुझे इस अवसर को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए.
मेरे मातृत्व द्वारा दिए गए सुझाव तथा अपने भाग्य पर विश्वास करते हुए मैंने उसे अनाथ से सनाथ बनाने को अपना उद्देश्य बना लिया और यहीं रहने की स्वीकृति देने का निर्णय ले लिया.

इससे पहले कि मैं अपने लिए गए निर्णय पर पुनर्विचार करने की चेष्टा भी करती मुझे बेटे के रोने की आवाज़ सुनाई दी. मैं तुरंत बेटे को उठा कर कमरे में ले गयी तथा उसे बिस्तर पर लेट कर उसे दूध पिलाने के दौरान मुझे भी नींद आ गयी.
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virat singh12 Offline
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21-11-2017, 11:33 PM (This post was last modified: 20-12-2017, 08:14 PM by rajbr1981.)
दोपहर के दो बजे का समय था जब तरुण वापिस आया और मुझे बिस्तर पर अर्ध नग्न हालत में देख कर मेरे वक्ष के ऊपर अपना तौलिया डाल कर मुझे आवाज़ लगा कर कहा- सरिता, उठो और अपने कपड़े ठीक कर लो.
फिर एक बड़े थैले को मेरे पास और दूसरे छोटे थैले को मेज़ पर रख कर कमरे से बाहर जाते हुए कहा- इसमें बच्चे एवं तुम्हारे लिए कुछ कपड़े लाया हूँ. तुम अपने और बच्चे के कपड़े बदल कर तरोताजा हो लो.

मैंने उसकी बात सुन सिर्फ ‘अच्छा’ कहते हुए पहले अपने स्तनों को ब्लाउज के अन्दर किया और उसके तौलिये को रस्सी पर फैला दिया.
मेरी ‘अच्छा’ को सुन कर वह बोला- कपड़े बदल कर आवाज़ लगा देना क्योंकि मेज़ पर रखे थैले में हम सब के लिए खाना भी लाया हूँ.
मैंने उत्तर में कहा- कपड़े बदलने से पहले मैं स्नान करना चाहूंगी. क्या तुम कुछ देर के लिए बच्चे का ध्यान रखोगे, तब तक मैं नलकूप पर जा कर नहा लेती हूँ?

उसके हाँ कहने पर जब मैंने बड़े थैले में से सभी कपड़े निकाल कर देखे तब उसमें मुझे अपने लिए दो जोड़ी बहुत ही सुन्दर घाघरा-चोली मिली तथा बेटे के लिए चार जोड़ी रंग-बिरंगे कपड़े थे.
मैंने अपने लिए एक घाघरा-चोली और बदन पौंछने के लिए तरुण का तौलिया उठा कर कंधे पर रख कर नलकूप पर चली गयी.

नलकूप के पास थोड़ी आड़ में मैंने अपनी धोती, ब्लाउज, ब्रा और पैंटी उतार कर पेटीकोट को अपने उरोजों के ऊपर बांध लिया और नलकूप से निकल रहे पानी के पास बैठ कर मैले कपड़े धोने लगी.
तभी मुझे पीछे से कुछ आहट सुनाई दी और मैंने पलट कर देखा तो वहां तरुण मेरे रोते हुए बेटे को ले कर खड़ा हुआ था.


मैंने तुरंत बेटे को तरुण से ले कर चुप कराने की कोशिश करी लेकिन असफल रही तब मैंने तरुण की ओर पीठ कर के पेटीकोट के नाड़े को ढीला करके अपने एक स्तन को बाहर निकल कर उसे दूध पिलाने लगी.
जब बेटा चुप हो गया तब मैंने उसे तरुण को थमाते हुए कहा- अब तुम इसे ले कर यहाँ से जाओ और मुझे कपड़े धोने और नहाने दो.

मेरी बात सुन कर तरुण वहाँ से चला गया और मैं जल्दी अपना पेटीकोट भी उतार कर सभी कपड़े के साथ ही धो दिया और खुद भी नहा ली.
उसके बाद तौलिये से अपना पूर्ण नग्न शरीर पोंछ कर जब कपड़े पहनने के लिए खड़ी हुई तब मैंने देखा कि तरुण बरामदे में खड़ा था. उस समय तरुण मेरे नग्न शरीर को घूर कर देख रहा इसलिए मैं तुरंत झाड़ियों की ओट में होते हुए जल्दी से कपड़े पहनने लगी.
क्योंकि तरुण ब्रा और पैंटी तो लाया नहीं था इसलिए मैंने सिर्फ घाघरा और चोली को पहन लिया लेकिन चोली पहनते समय उसकी डोरी जो पीछे की ओर थी उलझ गई तथा मैं उसे बाँध नहीं सकी.

बिना चोली को बांधे जब मैं कमरे पर पहुंची तब मुझे देख कर तरुण हँसते हुए बोला- मुझे लगता है की तुम्हे चोली की डोरी बाँधने का अभ्यास नहीं है. तुम जरा अपने बेटे को पकड़ लो और यह डोरी मैं बाँध देता हूँ.
तरुण से अपने बेटे को ले कर मैं उसकी ओर पीठ करके खड़ी हो गयी तब वह उलझी हुई डोरी सुलझा कर डोरी को बाँधने लगा.
जब तरुण ने डोरी बाँध दी तब मैंने चुनरी ओढ़ कर चुपचाप खाना खाया तथा उसके बाद झूठे बर्तनों को साफ़ करने के लिए नलकूप पर चली गयी.

मैं झूठे बर्तन साफ़ कर के कमरे पर आई तब देखा की तरुण कमरे के साथ ही बनी रसोई की सफाई कर रहा था. मेरे पूछने पर की वह उसे साफ़ क्यों कर रहा है तब उसने कहा- बच्चे का दूध आदि गर्म करने के लिए इसकी आवश्यकता पड़ेगी इसलिए साफ़ कर रहा हूँ.
तरुण के उत्तर से मैं निरुत्तर हो गयी और उसके काम में हाथ बटाने लगी तथा दोनों ने मिल कर आधे घंटे में ही उस रसोई को बिल्कुल साफ़ कर दिया.
रसोई की सफाई के बाद तरुण खेतों में काम करने चला गया और मैं कमरे एवं बरामदे की सफाई कर के फिर से बेटे के पास लेट गयी और सोचने लगी कि ‘क्या मेरा यहाँ रुकने का निर्णय ठीक था?’
तब मेरे मस्तिष्क ने कहा कि एक माँ को अपने बेटे के लिए जो करना चाहिए था, मैंने वही किया है.
और मन की आवाज़ ने भी मेरे उस फैसले को सही ठहराया.

मेरी इन दोनों आंतरिक आवाजों ने मेरे अंदर चल रहे द्वंद्वयुद्ध को शांत कर दिया और मैं बीते दिनों को भुला कर आने वाले समय के बारे सोचने लगी.
तीन घंटे बाद लगभग शाम के छह बजे ट्रेक्टर की आवाज़ सुन कर जैसे ही मैं बाहर निकली, तब तरुण ने कहा- चलो मैं तुम्हें गांव वाले घर में छोड़ दूँ.
मैंने बिना कुछ बोले सभी आधे सूखे कपड़े एक चादर में बाँध लिए और बेटे को गोद में ले कर ट्रेक्टर पर बैठ गयी.

लगभग दस मिनट के बाद तरुण ने गांव की एक बहुत बड़ी हवेली के मुख्य द्वार के सामने ट्रेक्टर को खड़ा कर दिया. मैं बहुत ही आश्चार्य से उस हवेली को देख रही थी तभी तरुण बोला- यह हमारी पुश्तैनी हवेली और मेरा घर है. मैं इसी घर में पैदा हुआ था और मेरी बहुत सी यादें भी इससे जुड़ी हैं.
मैं असमंजस से तरुण की ओर देख कर बोली- तुम तो कह रहे थे गाँव में घर है लेकिन यह तो बहुत बड़ी हवेली है. इतनी शानदार हवेली के होते हुए तुम खेत के उस झोंपड़ी में क्यों रहते हो?
वह बोला- मैंने कब कहा कि मैं यहाँ नहीं रहता हूँ. अकेला मस्त-मौला इंसान हूँ जहां रात हो जाती है वहीं सो जाता हूँ. कभी इस घर में और कभी उस झोंपड़ी में!
मेरे कुछ बोलने से पहले तरुण बोला- क्या यहीं बैठे रहने का इरादा है? लाओ वरुण को मुझे पकड़ा दो और अब नीचे उतरो और अंदर चलो.

तरुण ने वरुण को अपनी गोद में ले लिया और फिर हवेली का मुख्य द्वार खोल कर मुझे बड़ी बैठक, छोटी बैठक और भोजनकक्ष दिखाया.
फिर घर के बीच में बने आँगन में मेरे हाथ से गीले कपड़ों का गट्ठर ले कर वहीं रखते हुए मुझे घर के तीन शयनकक्ष, एक रसोई, दो गुसलखाने तथा दो शौचालय दिखाने के बाद चौथे शयनकक्ष में ले गया.
वह शयनकक्ष अन्य तीन शयनकक्ष से कुछ छोटा था और उसमें एक पलंग रखा हुआ था तथा उसके ही साथ एक पालना भी रखा था.
तरुण ने उस पालने में वरुण को लिटाते हुए कहा- आज से यह शयनकक्ष तुम्हारा और वरुण का है, तुम आराम से इसमें रहो.

मेरे पूछने पर कि उसका शयनकक्ष कौन सा है तो उसने कमरे से बाहर जाते हुए बिल्कुल साथ वाले बड़े शयनकक्ष की ओर इशारा कर दिया.
मैंने जब कक्ष में रखे पलंग को ध्यान से देखा तब पाया की वह इतना बड़ा था कि उस पर दो इंसान बहुत ही सुविधापूर्वक सो सकते थे.

उस पलंग पर काफी नर्म गद्दों वाला बिस्तर लगा हुआ था तथा साथ रखे पालने में तो बहुत ही नर्म बिस्तर बिछा था और वरुण उस पर बहुत ही आराम से सोया हुआ था.
पलंग के सामने एक मेज तथा उसके पास दो कुर्सियाँ रखी थी और कक्ष की एक दीवार के साथ लगी हुई बहुत बड़ी अलमारी रखी थी.

मैंने कौतूहल वश जब उस अलमारी को खोल कर देखा तो पाया कि उसमें तीन भाग थे जिसमें से एक भाग में किसी छोटे बच्चे के लिए बहुत ही सुन्दर कपड़े रखे थे और दूसरे भाग में किसी स्त्री के कपड़े रखे थे.
जब अलमारी का तीसरा भाग खोला और उसे बिल्कुल खाली पाया तब मैं सोचने को विवश हो गयी कि शायद वह भाग किसी पुरुष के लिए आरक्षित तो नहीं है.

उसी वक्त मैंने कक्ष की दीवार पर लगी घड़ी में शाम के सात बजने का समय देखा तो तुरंत कक्ष से बाहर निकल कर तरुण को खोजने लगी.
तभी मुझे रसोई में से किसी बर्तन के गिरने की आवाज़ सुनी तो मेरे कदम उस ओर बढ़ गए. मैंने जब रसोई में झाँक कर देखा की तरुण चूल्हे पर कुछ पका रहा था तब मैं तेज़ी से अंदर गयी और उसे वहां से अलग करती हुई खुद मोर्चा सम्भाल लिया.

उसके विरोध करने पर मैंने उसे कह दिया कि घर की रसोई एक स्त्री का सबसे पवित्र कर्मस्थल होता है और वह उसमें किसी भी पुरुष का हस्तक्षेप सहन नहीं कर सकती है. मेरी बात सुन कर वह अवाक सा एक ओर खड़े हो कर जब मुझे तेज़ी से काम करते देखने लगा तब मैंने उससे पूछा लिया कि कक्ष में अलमारी के अंदर किसके कपड़े रखे हुए हैं?
तब तरुण ने बताया- वह कपड़े मेरी माँ ने मेरी होने वाली पत्नी और बच्चे के लिए बनाये थे लेकिन मैं उसके जीवन में तो उसकी यह इच्छा पूरी नहीं कर सका. यह कपड़ों के ऐसे ही पड़े रहने से खराब होने के डर से मैंने उन्हें हवा लगा कर अलमारी में रख दिए थे.
थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह बोला- मुझे आशा है की कम से कम उनमें से कुछ कपड़े तो अब तुम्हारे और वरुण के पहनने के काम आ ही जाएँगें.
उसकी बात को सुन कर मैंने कुछ बोलना सही नहीं समझा और चुप चाप खाना बनाती रही.

खाना बनने के बाद तरुण एवं मैंने एक साथ बैठ कर खाना खाया और उसके बाद वह खेतों में चक्कर लगाने के लिए चला गया.
रसोई में साफ़ सफाई का काम समाप्त करके मैंने अलमारी खोल कर उसमें से रोजाना पहनने वाले सादे कपड़े निकाल कर अलमारी के नीचे वाले हिस्से में रख लिए और बाकी के सभी ऊपर के हिस्से में रख दिए.
उन कपड़ों में मुझे एक जोड़ी ब्रा एवं पैंटी तथा दो नाइटी भी मिली जिन्हें मैंने निकाल कर अलग किया और घाघरा-चोली उतार उन्हें पहन कर देखा. जब वह मुझे बिल्कुल फिट आये तब मैंने एक नाइटी को रात के लिए पहने रखा और बाकी सभी कपड़ों को अलमारी में रख दिए तथा बिस्तर पर सोने के लिए लेट गयी.

क्योंकि पिछले सात दिनों में घटित घटनाओं से परेशान मैं ठीक से सो भी नहीं पायी थी और बेटे को गोद में लिए दर दर भटकने के कारण बहुत थक भी चुकी थी इसलिए थकान से निढाल एवं उनींदे के कारण उस नर्म सेज पर लेटते ही मुझे नींद ने घेर लिया और रात भर एक ही करवट सोती रही.
रात को तरुण हवेली कब लौटा था, इसका मुझे पता ही नहीं चला था इसलिए दूसरे दिन सुबह पांच बजे उठ कर सब से पहले उसके कमरे में जा कर देखा तो उसे सोया पाया.

उसके बाद मैंने तबेले में बंधी गाय का दूध निकाला, तरुण को चाय-नाश्ता करा कर खेतों में भेजा और उसके बाद पूरी हवेली की सफाई करी, वरुण को नहलाया तथा खुद भी नहाई.
दोपहर को मैंने खाना बना कर डिब्बे में बंद करके थैले में डाला और वरुण को गोदी में उठा कर खेतों पर चली गयी.
खेतों में वरुण को एक पेड़ की छाया में सुला कर मैंने एक घंटा तरुण की सहायता करी और उसके बाद हम दोनों ने खाना खाया.

खाना खा कर नलकूप पर बर्तन साफ़ करे तथा झोंपड़ी की साफ़-सफाई करने के बाद बेटे को ले कर हवेली वापिस आ गयी.
शाम को हवेली वापिस पहुँचने पर गाय का दूध निकाला और फिर रात का खाना बनाया तथा तरुण को खिलाने के बाद खुद खाना खाया और फिर रसोई की साफ-सफाई करके ही सोयी.
इस प्रकार प्रतिदिन वरुण की देखभाल के साथ साथ मैं इसी गतिविधि के अनुसार हवेली और झोंपड़ी का कार्य करती रही और आठ माह कैसे बीत गए पता ही नहीं चला.

मार्च 2014 माह के मध्य में चार खेतों में लगाई गेहूं की फसल जब तैयार होने वाली थी तब उसकी रखवाली के लिए तरुण दिन रात खेतों पर ही रहने लगा.
मैं पहले कुछ दिनों तक दोपहर का खाना तरुण को खेत पर दे आती थी तथा रात को वह घर पर आ कर खाता और वापिस खेतों पर चला जाता.

एक दिन जब वह रात को खाना खाने आया तब उसके पीछे से एक खेत में कुछ जानवर घुस आये और उन्होंने एक खेत के कोने के थोड़े से हिस्से में खड़ी फसल खराब कर दी.
अगले दिन तरुण ने आते ही मुझसे कहा- मैं अब रात को खेत छोड़ कर खाना खाने घर नहीं आ सकता इसलिए तुम रसोई का और अपना कुछ ज़रूरी सामान ले कर झोंपड़ी में रहने के लिए आ जाओ. तीन-चार सप्ताह के बाद जब फसल कट जायेगी तब हम फिर वापिस हवेली में रहने आ जायेंगे.

तरुण के कहे अनुसार मैंने रसोई तथा तरुण, वरुण तथा मेरा ज़रूरी सामान बाँध कर रख दिया और दोपहर का खाना ले कर खेतों में चली गई.
खाना खा कर मैं खेतों की रखवाली करती रही और तरुण ट्रेक्टर से हवेली में बंधा समान के साथ कुछ और सामान भी ले आया.
ट्रेक्टर ट्राली में अतिरिक्त सामान देख कर मैंने तरुण से पूछा- मैं इतना सामान तो बाँध कर नहीं आई थी फिर यह बाकी का इतना सब समान कहाँ से ले आये?”
उसने छोटा सा उत्तर दिया- हवेली से ले कर आया हूँ.

अगले आधे घंटे में जब तक मैंने रसोई में सभी सामान लगा कर कमरे में गयी तो देखा की तरुण ने वहाँ एक अतिरिक्त चारपाई और बिस्तर लगा दिया था तथा मेज़ के पास अब तीन कुर्सियां पड़ी थी.
मैं दिन में चूल्हा-बर्तन, झोंपड़ी की सफाई करती और खाली समय में खेतों की रखवाली करने में तरुण की सहायता करती थी.

क्योंकि पन्द्रह माह का वरुण अब बहुत अच्छे से चलता फिरता था इसलिए वह पूरा दिन तरुण या मेरे साथ खेतों में भागता फिरता रहता था. दिन में जब भी मैं नलकूप पर कपड़े धोने और नहाने जाती थी, तब वरुण मेरे साथ नहाता था और शाम को वह अकसर तरुण के साथ नहाने नलकूप पर पहुँच जाता था.
जब मैं उसे लेने जाती थी तब अकसर तरुण के गीले जांघिये में उसका तना हुआ लिंग मुझे दिख जाता था जिससे मेरे शरीर में एक तरह की झुरझुरी हो उठती थी. तब मैं वहाँ से वरुण को जल्दी से उठा कर झोंपड़ी में ले जाती थी और अपने को संयम में रखने के लिए उसे पौंछने एवं कपड़े पहनाने में व्यस्त कर लेती.
लेकिन कभी कभी नहाने के बाद तरुण जब तौलिया बाँध कर जांघिये को उतारता या पहनता तब मुझे उसका वह सुन्दर एवं आकर्षक नग्न लिंग दिख जाता तब मेरा मन उसे पाने के लिए विचलित हो उठता.

जब भी मैं तरुण के नग्न लिंग को देख लेती तब दिन हो या रात हर समय मुझे आँखें बंद करते उसी लिंग की छवि दिखाई देती रहती. तब मेरे स्तन सख्त हो जाते थे तथा उन की चूचुक कड़ी एवं लम्बी हो जाती थी और उन्हें सहलाने या उँगलियों के बीच में मसलने की इच्छा होने लगती थी.
जब कभी भी मैं काम वासना के आवेश में बह कर अपने स्तनों और चूचुकों को सहला एवं मसल देती थी तब मेरी योनि में हलचल होने लगती थी.
उस हलचल के कारण मैं बहुत ही उत्तेजित हो जाती और अपनी योनि की हलचल शांत करने के लिए प्राय: मुझे उसमें उंगली करके रस का स्खलन करवाना पड़ता.

मैं अपने को नियंत्रण में रखने के लिए कई बार तरुण के नहाने के समय नलकूप पर नहीं जाने का निश्चय करती लेकिन उसके लिंग को देखने की मेरी लालसा मुझे ना चाहते हुए भी वहाँ जाने के लिए बाध्य कर देती.
जब रात को मैं बिस्तर पर लेट कर आँख बंद करती तब मेरी वासना जाग उठती और मेरी नौ माह से प्यासी योनि की नसें तरुण के लिंग के लिए फड़कने लगती थी. मैं कई बार साथ वाले बिस्तर की ओर देख कर जब तरुण को वहां नहीं पाती तब मन मसोस कर रह जाती और रात भर जागती रहती थी. मेरी इच्छा होती थी की तरुण अपना लिंग को योनि में डाल कर मेरी उत्तेजना को शांत करे लेकिन ऐसा कैसे सम्भव हो यह नहीं जानती थी.


मैं अपनी कामुक लालसा तरुण को दर्शाना नहीं चाहती थी इसलिए मैंने ऐसे किसी भी प्रयास में पहल नहीं करी क्योंकि मैं चाहती थी ऐसी पहल तरुण की ओर से ही हो.

कुछ दिनों के बाद एक रात को मेरे मन में विचार आया कि मैं नलकूप पर कपड़े धोते और नहाते समय अगर अपनी नग्नता तरुण को दिखाऊं तो शायद वह कोई पहल करे.
लेकिन मेरा मन और मस्तिष्क ऐसे किसी भी विचार से बिल्कुल सहमत नहीं थे इसलिए उनकी ओर से मुझे ऐसा कुछ भी नहीं करने के संकेत मिले.
मन एवं मस्तिष्क के संकेत में ही अपनी बेहतरी समझते हुए मैंने वह विचार त्याग दिया और करवट बदल कर सो गयी.

चार-पाँच दिनों के बाद जब सुबह मेरी नींद खुली तो देखा की तरुण और वरुण सो रहे थे तब मैंने सोचा की उनके उठने से पहले मैं नहा लेती हूँ.
मैंने जल्दी से मैले कपड़े उठाये और नलकूप पर जा कर अपने सभी कपड़े भी उतारे तथा नग्न ही उसकी मुंडेर पर बैठ कर उन्हें धोने लगी.
जब सभी कपड़े धुल गए तब मैंने खड़े होकर कपड़ों को नलकूप के पाईप पर रख दिया और उसमें से निकल रही पानी की मोटी धार के नीचे बैठ कर नहाने लगी.

नहा लेने के बाद जब मैं उठ कर पास की झाड़ियों पर पड़े तौलिये को उठा कर अपने शरीर को पोंछ रही थी तभी मेरी नजर झोंपड़ी के बरामदे में खड़े तरुण पर पड़ी जो मेरे शरीर को गौर से देख रहा था. मैं तुरंत झुक कर झाड़ियों की आड़ में होते हुए पहले लहंगा पहना और जब चोली पहन कर उसकी डोरी बाँधने लगी तो पाया कि पहले दिन की तरह वह उलझी हुई थी.
मैं उस उलझी डोरी को सुलझाने की कोशिश कर रही थी तभी तरुण वहाँ आ गया और मेरी परेशानी को देख कर जोर से हंसने लगा.


मैंने जब उसकी ओर गुस्से से देखा तब उसने मेरी पीठ की ओर आ कर चोली की डोरी को पकड़ते हुए बोला- तुमने इतने दिनों में अभी तक चोली की डोरी बांधनी नहीं सीखी. लाओ मैं बाँध देता हूँ और तुम्हें बांधना भी सिखा देता हूँ.
उसके बाद तरुण ने डोरी सुलझाने के लिए जब चोली को थोड़ा ढीला किया तब मेरे दोनों स्तन उसमें से बाहर निकल गए.
तरुण ने जब यह देखा तो बिना कुछ पूछे या कहे अपने दोनों हाथों को मेरी बगल से आगे ला कर मेरे दोनों स्तनों को पकड़ कर चोली के अन्दर करके डोरी खींच कर बाँध दी.
उसकी इस हरकत से मैं कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गयी और कुछ बोल नहीं सकी तथा वहाँ से भाग कर झोंपड़ी में चली गयी.
मेरे पीछे पीछे तरुण नलकूप से धुले कपड़े ले कर आया और उन्हें बरामदे में बंधी रस्सी पर सूखने के लिए फैला दिए.

उस पूरे दिन मैं अपने उरोज़ों पर तरुण के मजबूत हाथों का स्पर्श महसूस करती रही और मेरे शरीर के विभिन्न अंगों में उत्तेजना की लहरें दौड़ती रहीं.
उस रात को खाना खाकर जब तरुण खेतों का चक्कर लगाने गया तब मैंने वरुण को सुलाते हुए सोचा कि तरुण ने तो पहल कर ही दी थी तो अब मुझे भी कदम आगे बढ़ाना चाहिए. उसी रात लगभग तीन बजे जब मेरी नींद खुली और मैंने देखा की सोये हुए तरुण की लुंगी की गाँठ खुल गयी थी तथा उसका आधा भाग सरक गया था जिससे उसका लिंग नग्न हो रहा था.
वासना के वशीभूत होकर मैं अपने पर नियंत्रण खो बैठी और तरुण के बिस्तर पर बैठ कर उसके लिंग को सहलाने लगी थी.
कुछ ही क्षणों में जब तरुण का लिंग तन गया और उसका लिंग-मुंड भी त्वचा से बाहर निकल आया तब मैंने तरुण की ओर देखा तो पाया कि वह जाग चुका था और मुस्करा रहा था.
हमारी नजरें मिलते ही वह बोला- क्या बात है? क्या नींद नहीं आ रही है या फिर कुछ चाहिए?
मैंने उत्तर में कहा- आपने आज मेरे शरीर में जो आग लगा दी है वह जब तक बुझेगी नहीं तब तक नींद कहाँ से आयेगी.

मेरा उत्तर सुन कर वह उठ कर बैठ गया और कहा- सरिता, मैं तुम्हारी समस्या को समझ गया हूँ. आज सुबह मैंने आवेश में आ कर जो किया उसके लिए मुझे बहुत खेद है. मुझे बिल्कुल भी अंदेशा नहीं था कि मेरे उस व्यवहार का तुम पर ऐसा असर होगा क्योंकि काफी दिनों से तुम्हारी वासना की तृप्ति नहीं हुई है शायद इसलिए तुम्हें नींद नहीं आ रही है.
मैं बिना कोई उत्तर दिए चुपचाप तरुण के तने लिंग को सहलाते हुए सोचती रही कि उसके द्वारा कही गयी बात से अपनी सहमति कैसे व्यक्त करूँ.
मेरे द्वारा उसकी बात का उत्तर नहीं देने पर उसने मेरी नाइटी के खुले बटनों में से अपना हाथ डाल कर मेरे स्तनों को सहलाते हुए मुझसे पूछा- तुमने मेरी बात का उत्तर नहीं दिया. अगर तुम्हारी सहमति मिल जाये तो मैं तुम्हें तृप्ति एवं संतुष्टि देने के लिए तैयार हूँ. उसके बाद तुम्हें बहुत ही चैन की नींद आ जाएगी.

तरुण की इस बात से मैं दुविधा में पड़ गयी और सोचने लगी कि मैं बेटे को सनाथ बनाने के लिए सहवास की स्वीकृति दूँ या फिर अपनी वासना की तृप्ति के लिए?
कुछ क्षण तक इस प्रश्न पर विचार करने पर मुझे एहसास हुआ की मेरी स्वीकृति देने से मेरी वासना की भूख मिटाने के साथ साथ बेटे को सनाथ बनाने की इच्छा पूर्ति की ओर भी एक कदम बढ़ेगा.
जब मैंने स्वीकृति देने से एक तीर से दो निशानों पर वार होते पाया तब मैंने बिना देर किये नीचे झुक कर तरुण के लिंग को अपने मुंह में ले लिया.

तरुण ने मेरी इस कृत्य को मेरी स्वीकृति मान कर झट से मेरी नाइटी एवं अपनी आधी खुली हुई लुंगी उतार कर दोनों को पूर्ण नग्न कर दिया. मुझे पहले तो संकोच हुआ क्योंकि मैं जीवन में पहली बार किसी पर-पुरुष के सामने नग्न हुई थी लेकिन मैंने अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु कुछ देर के लिए निर्लज्ज बनाना भी स्वीकार कर लिया.
जब मैं फिर से तरुण के लिंग को मुँह में लेने लगी तब उसने मुझे घुमा कर 69 की स्तिथि में लिटा दिया और खुद मेरे ऊपर आ कर अपना लिंग मेरे मुँह में दे दिया तथा मेरी योनि पर अपना मुंह लगा दिया.

कुछ ही क्षणों में मेरी वासना में वृद्धि होने लगी और उस उत्तेजित स्थिति में मैंने उसके पूरे लिंग को अपने मुँह में ले कर गले में उतार दिया और उसके अंडकोष को मसलने लगी. मेरे द्वारा ऐसा करने से तरुण उत्तेजित हो गया और उसने अपनी जीभ को तेजी से मेरी योनि के अन्दर बाहर करने लगा तथा एक उंगली से मेरी भगनासा को मसलने लगा.
पांच मिनट के बाद ही तरुण के शरीर में बढती उत्तेजना इतनी बढ़ गयी कि उसके लिंग में से स्वादिष्ट पूर्व-रस अमृत की कुछ बूंदों ने मेरे मुँह को खट्टा-नमकीन करना शुरू कर दिया.
उस पूर्व-रस के स्वाद और तरुण द्वारा मेरी योनि तथा भगनासे को सहलाने एवं मसलने के कारण मेरी उत्तेजना में बहुत वृद्धि हो गयी जिस कारण मेरा शरीर अकड़ने लगा. कुछ हो क्षणों के बाद मेरी योनि में से भी तरुण के लिए कुछ बूँदें योनि-रस की निकल पड़ी और उसके मुख तथा होंठों से लिपट गयीं

तब तरुण अपने होंठों पर लगे योनि-रसं पर जीभ फेरता हुआ उठा और मुझे सीधा लिटा कर मेरी टांगें को चौड़ी कर के उनके बीच में बैठ गया. मैं इसके लिए तैयार थी इसलिए मैंने पूरा सहयोग करते हुए अपने हाथ में उसके सख्त एवं तने हुए लिंग को पकड़ कर अपनी योनि में मुँह पर लगा दिया.
तब तरुण ने मेरी दोनों टांगों को उठा अपने कन्धों पर रख लिया और नीचे से एक हल्का सा धक्का दिया जिससे उसका आधा लिंग मेरी योनि में प्रवेश कर गया. तरुण के तीन इंच मोटे लिंग-मुंड ने मेरी योनी को पूरा फैला दिया और उस क्षण मुझे ऐसा लगा की जैसे मेरी योनि में एक गर्म लोहे की छड़ घुस गयी हो.
उस लिंग का मेरी योनि में घुसने से हुई फैलावट के कारण मुझे थोड़ी असुविधा हुई और मेरे मुँह से एक लम्बी आहह्ह्ह… निकल गयी जिसे सुनते ही तरुण रुक गया. जब तक मुझे अपनी योनि में तरुण के लिंग को समायोजित करने में कुछ समय लगा तब तक वह रुका रहा और जब मेरे चेहरे पर सामान्य भाव आये तब उसने धक्का लगा दिया. उस धक्के के लगते ही तरुण का आठ इंच लम्बा लिंग मेरी योनि की जड़ तक पहुँच गया और मेरे गर्भाशय में घुसने का प्रयास करने लगा.
मुझे जीवन में पहली बार अपनी योनि के अन्दर का हर कोना पूरी तरह से ठूस कर भरा हुआ महसूस हुआ. अपने पूरे लिंग को मेरी योनि में घुसाने के बाद तरुण कुछ देर के लिए थम गया और अपने लिंग को मेरे अन्दर ही फुलाने और सिकोड़ने लगा.
तरुण के लिंग में हो रही इस क्रिया के कारण मैं योनि में हो रही असुविधा को भूल गयी और उससे मिलने वाले आनंद को दुगना करने के लिए योनि को सिकोड़ कर तरुण के लिंग को जकड़ लिया.
लगभग पांच मिनट के बाद तरुण ने धीमे धीमे अपने लिंग को मेरी योनि के अन्दर बाहर करना शुरू कर दिया.

क्योंकि उसक लिंग-मुंड बहुत मोटा है इसलिए वह मेरी योनि की चारों ओर की दीवारों को रगड़ता हुआ चल रहा था जिससे योनि के अन्दर बहुत ही तेज़ हलचल एवं खलबली होने लगी थी.
जहां मेरी योनि में कामोन्माद होने में पन्द्रह से बीस मिनट लगते थे वहां उस समय सिर्फ सात-आठ मिनट में ही खिंचावट की एक तेज़ लहर के साथ मेरी योनि में से रस का स्खलन हो गया.

अगले पन्द्रह मिनट तक तरुण अपने लिंग को मेरी गीली योनि में अन्दर बाहर करता रहा और इस अवधि में मेरी योनि को दो बार कामोन्माद से गुज़र कर स्खलित होना पड़ा. उसके बाद तरुण बहुत ही तीव्रता से संसर्ग करने लगा और जैसे ही उसके लिंग से वीर्य रस स्खलित होने का समय आया तो उसका लिंग और भी अधिक फूल गया.
ठीक उसी समय मेरा पूरा शरीर ऐंठ गया और टाँगे अकड़ गयी तथा मेरी योनि में भी अत्यंत तीव्र संकुचन होने लगा जिससे दोनों के गुप्तांगों में भीषण घर्षण हुआ. उस घर्षण से उत्पन्न हुई कामोन्माद से दोनों ने कुछ ही क्षणों में एक साथ अपने अपने रस का विसर्जन कर दिया और दोनों निढाल होकर बिस्तर पर लेट गए.
हमें कब नींद आ गयी इसका पता ही नहीं चला और जब सुबह पक्षियों के चहकने की आवाज़ सुन कर मेरी नींद खुली तब मैंने अपने को बिस्तर पर पूर्ण नग्न पाया और तरुण का कहीं पता नहीं था.
मैं कपड़े पहन कर कमरे से बाहर निकली तो देखा की तरुण झोंपड़ी के बगल में बने तबेले में बंधी गाय का दूध निकाल रहा था.

मेरे पूछने पर की गाय कब लाया तब उसने कहा- बच्चे और चाय आदि के लिए दूध लाने के लिए सुबह शाम हवेली पर नहीं जाना पड़े इसलिए मैं तड़के ही गांव जा इसे ले आया हूँ.
मैंने उससे दूध बर्तन ले कर रसोई में उबालने के लिए ले गई, तब वह भी मेरे पीछे आ गया और पूछने लगा- सरिता, कल दिन तथा रात में जो हुआ उससे तुम नाराज़ तो नहीं हो. सच कहता हूँ की दोनों समय मैं अपने को नियंत्रण में नहीं रख सका था.
मैंने उत्तर दिया- नहीं, मैं खुद भी अपने पर नियंत्रण नहीं रख सकी थी इसलिए तुमसे नाराज़ होने का तो कोई औचित्य ही नहीं बनता है.

तब उसने पूछा- सच सच बताना, क्या तुम्हारी अधीर वासना को आनंद, तृप्ति एवं संतुष्टि मिली?
मैंने उसके होंठों के चूमते हुए कहा- मुझे कल रात के सहवास से जितना आनंद एवं संतुष्टि मिली है उतनी पहले कभी नहीं मिली थी. लेकिन सच बोलूं तो अभी तृप्ति नहीं मिली बल्कि प्यास और बढ़ गयी है.
इतने में चूल्हे पर रखे दूध में उबाल आ गया और जैसे ही मैंने उसे उतार कर नीचे रखा तभी तरुण ने मुझे उठा कर कमरे में ले जा कर बिस्तर पर पटक दिया.
फिर हँसते हुआ बोला- मैं अपनी असफलता बर्दाश्त नहीं कर सकता और अब जब तक तुम्हे तृप्ति नहीं मिलती तब तक मैं तुम्हें नहीं छोड़ूंगा.

उसके बाद हम दोनों एक बार फिर नग्न हो कर संसर्ग के एक नए दौर के लिए एक दूस्ररे को उत्तेजित करने लगे.
एक घंटे के संसर्ग के बाद उत्पन्न हुई कामोन्माद से जब हम दोनों का रस विसर्जन हुआ तब जा कर मेरी प्यासी वासना की तृप्ति हुई.
उस लंबी अवधि के सम्भोग के बाद हम दोनों को थोड़ा आलस्य आ गया था और हम एक दूसरे की बाँहों लिपटे एक घंटे के लिए नींद के आगोश में चले गए.

जब मेरी नींद खुली तब देखा की तरुण भी जाग चुका था और मेरे करीब ही बैठा हुआ मेरे उरोज़ों को बहुत ही गौर से देख रहा था. मैं भी उठ कर बैठ गयी और उससे पूछा- इतने गौर से क्या देखने में तल्लीन हो?
वह मेरे नजदीक आते हुए बोला- सरिता, सच में तुम बहुत सुंदर हो और तुम्हारे शरीर की सुन्दरता का तो कोई जवाब नहीं. विशेष रूप से तुम्हारी चूचियों का उभार तथा आकृति इतने आकर्षक और सुंदर है कि मेरे पास इनके बारे कुछ कहने के लिए कोई शब्द ही नहीं हैं.
मैंने शर्माते हुए कहा- धत, क्या कोई मर्द किसी पराई स्त्री से ऐसे बात करता है?
तरुण ने तुरंत कहा- यह तो मुझे आज पता चला है की स्त्री एक मर्द के साथ दो बार सम्भोग करने के बाद भी अपने आप को पराई ही समझती है. लेकिन मैं तुम्हें अब पराई बिल्कुल नहीं मानता हूँ क्योंकि कल रात से तुम्हें सदा के लिए अपना बना चुका हूँ.

इससे पहले मैं कुछ कहती तरुण बोला- सरिता, अगर तुम्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं है और अभी भी अपने को पराई महसूस करती हो तो चलो अभी गाँव के मंदिर ईश्वर से आशीर्वाद लेने के लिए चलते है.
तरुण ने ऐसी बात कह कर मुझे एकदम चकित कर दिया और उस विस्मित स्थिति मुझे चक्कर आ गया तथा मैं आँखें बंद करके उसकी बाजुओं में झूल गयी.

थोड़ी देर बाद जब मैंने अपने को सँभाल कर आँखें खोली तब तरुण ने मेरे होंठों को चूमते हुए कहा- सरिता, क्या हो गया तुम्हें? क्या मेरी कही बात तुम्हें अच्छी नहीं लगी?”
मैंने उठ कर बैठते हुए कहा- मुझे कुछ नहीं हुआ और ना ही ऐसी कोई बात नहीं है. आपने अचानक ही वह बात कह दी जिसकी मुझे बिल्कुल भी अपेक्षा नहीं थी.

तभी मुझे एहसास हुआ की तरुण मेरे दोनों नग्न उरोज़ों को अपने हाथों में ले कर धीरे से सहला रहा था तथा उँगलियों से उनकी चूचुकों से खेल रहा था.
मैंने उसके हाथों को पकड़ कर अलग करते हुए कहा- अब आप इनको क्यों परेशान कर रहे हो?
मेरी बात के उत्तर में तरुण ने कहा- मुझे ऐसी कोमल त्वचा वाली, कठोर तथा उठी हुई गोल चूचियां को देखने और छूने का सौभाग्य आज से पहले कभी नहीं मिला. इसलिए मैं तो इन को सहला कर अपना दिल बहला रहा था. मैं जीवन भर इन्हें इसी तरह सहलाते रहना चाहता हूँ, क्या तुम इसके लिए राज़ी हो?

तरुण की बात से मिल रही ख़ुशी के कारण मेरे मुख कोई बात नहीं निकल रही थी इसलिए मैंने अपने होंठों को उसके होंठों को चूमते हुए अपनी स्वीकृति व्यक्त कर दी. मेरी स्वीकृति मिलते ही तरुण ख़ुशी से झूम उठा और मुझे अपनी गोदी में उठा कर मेरे समक्ष शरीर पर चुम्बनों की बौछार कर दी.
उसके बाद मैंने वरुण को जगाया और हम तीनों नग्न ही नलकूप पर जा कर एक साथ ही नहाये तथा तैयार हो कर गाँव के मंदिर में जा कर गन्धर्व विवाह करके ईश्वर का आशीर्वाद लिया.
दो माह तक गन्धर्व विवाह हेतु हम दोनों पति पत्नी के समान रहे और जीवन के हर क्षण का आनंद एवं संतुष्टि पाते रहे.
दो माह के बाद एक शुभ मुहूर्त पर हमने सामाजिक विवाह कर पति पत्नी बन गए परन्तु मेरा ध्येय तब भी पूर्ण नहीं हुआ क्योंकि तरुण ने वरुण तब तक बेटा कह कर उसको पिता का हक नहीं दिया था.

विवाह के दो वर्ष बाद ही मुझे जीवन की सब से बड़ी ख़ुशी तब मिली जिस दिन तरुण ने गाँव के शिशु मंदिर में वरुण को दाखिल कराया.
उस ख़ुशी का वास्तविक कारण था की वरुण को दाखिल करवाते समय तरुण ने भरती फार्म में पिता के स्थान में अपना नाम लिख कर उस अनाथ बालक को सनाथ बनाने का मेरा ध्येय पूरा कर दिया था.



pls more comments  Thankyou
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dpmangla Online
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22-11-2017, 07:42 PM
Superb Story, Lovely Discription n Wonderful Words used to Narrate d Story
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rajbr1981 Online
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22-11-2017, 07:44 PM
nice story
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virat singh12 Offline
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Thank u for reading guys..
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27-11-2017, 09:55 AM
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