आजकल के वातावरण और सामाजिक हवाओं से मेरे मन में उपजी है। इस कहानी में मैं खुद को एक नायिका की तरह देखती हूँ, अंग्रेज़ी में जिसे Fantasy कहते हैं, यह स्टोरी शायद वही है। मैं शायद इसको एक बार जीना चाहती हूँ इसीलिए इसे कहानी के रूप में लिख रही हूँ। इस कहानी में जो किरदार आएंगे उसे उसी समय बताउंगी क्योंकि मुझे भी नहीं पता ये कहानी कहाँ तक जाएगी, पर इसके माध्यम से अपनी सीमाओं को लांघना चाहूँगी। अगर आप लोगों को मेरी Fantasy क्लिक करे और आप पसंद करें तो हौसला अफजाई के लिए कुछ शब्द लिखते रहिएगा।
मैं अफराह हूँ, उमर 19 वर्ष। कहानी को शुरू करने से पहले मैं किस यकीन और तालीम से पली बढ़ी उसे बता देती हूँ। बचपन से ही मैं एक दीनदार खानदान में पली बढ़ी। मेरे अब्बू अम्मी मुझे दीन की तालीमात से इस तरह नवाजना चाहते थे कि मैं किसी हीरे की तरह चमकती रहूँ। बचपन से ही वो मुझे मजलिसों में नात गवांते थे जिसके कारण मेरी आवाज को रियाज़ का मौका मिला और घर परिवार और मोहल्ले में सब मेरी आवाज के कायल भी हुए। बाद में जब मुझे अंग्रेज़ी स्कूल में दाखिला दिलाया गया तो स्कूल में भी लोग मेरी आवाज के कायल हुए। अम्मी ने मुझे पाँचों वक़्त का नमाज़ी बचपन से ही बना दिया था। मैं रोज़ा भी छोटी उमर से रखने लगी थी। कोई रोज़ा मुझसे नही छूटता था केवल पीरियड्स के दिनों को छोड़कर जिनको मैं पीरियड्स के बाद पूरा करती थीं। अब्बू मुझे दीन के साथ साथ दुनिया में भी कामयाब बनाना चाहते थे इसीलिए घर में दीन की तरबियत के बाद जब ज़रूरत समझी तो एक इंग्लिश स्कूल में दाखिला भी कराया। इंग्लिश स्कूल में दाखिला लेना एक खुद में कहानी थी क्योंकि अब्बू मुझे बाकी बच्चों की तरह तीन साल की उमर में एडमिशन नहीं दिला पाये क्योंकि उनकी शर्त थी कि स्कूल में मुझे सिर से हिजाब करने दिया जाए। इसीलिए मेरा एडमिशन बहुत लेट हुआ। मैं भी अब्बू से बहुत मोहब्बत करती थी इसीलिए उनकी सिखाई हर चीज़ पे फक्र करती थीं। मुझे नहीं मालूम था कि मेरा हिजाब पहनना और डिसिप्लिन से नमाज़ रोज़ा करना मेरा सबसे बड़ा दुश्मन हो जाएगा। खैर मैंने अपने आप पढ़ना शुरू किया और स्कूल पास किया फिर बाद में कॉलेज में आ गईं। मैं हर क्लास में फर्स्ट या सेकंड आती रहीं। इल्म बढ़ने के साथ साथ मेरा जिस्म भी बढ़ रहा था। अल्लाह मुझमें अपने नूर के साथ साथ मेरे जिस्म को भी भर रहा था। मेरे दूध फूलने लगे थे और कब अम्मी ने मुझे बनयान से ब्रा पहनाना शुरू कर !
दिया पता ही नहीं चलाI
स्कूल में अब्बू अम्मी ने तो मना किया ही था और वैसे भी मैं लड़कों से ज़्यादा नहीं बोलती थी। मेरी दो चार ही सहेली थी पर वो भी मेरे फर्स्ट आने पे मुझसे जलती थीं। बड़े क्लासेज में सिलेबस बहुत बढ़ गया था, खुद से पढ़ाई मुश्किल थी। क्लास के सभी बच्चे ट्यूशन लगा लिए थे पर मुझे अब्बू से कहने में झिजक हो रही थी। अब्बू वैसे भी मुझे अपने खानदान वालों को अनसुना कर इंग्लिश स्कूल में पढ़ा रहे थे जो कि एक कान्वेंट स्कूल था। मैंने किसी तरह बिना टयूशन के ही पढ़ाई की और स्कूल पासकर कॉलेज में भी दाखिला ले लिया।
स्कूल में कभी भी कोई गैर मुस्लिम फेस्टिवल होता था तो मैं उसे सेलिब्रेट नहीं करती थी क्योंकि वो मेरे धर्म और विश्वास के विरुद्ध होता। खासकर होली का त्योहार जिसे स्कूल के बॉयज स्कूल अथॉरिटीज के मना करने के बाद भी मनाते। स्कूल बस में स्टूडेंट्स पहले से रंग लाकर रख देते थे, होली हमेशा मार्च के exams के बाद पड़ती थी। स्टूडेंट्स exams के आखरी दिन होली मना लिया करते थे। बस में इतना उधम मचाते, एक दूसरे को रंग लगते, सुनने में तो आता था की सीनियर क्लास के लड़के बस के कंडक्टर के साथ मिलके पीते भी थे। पर मैं कभी होली नहीं खेलती थी, किसी की हिम्मत न होती थी कि मेरी मर्ज़ी के बग़ैर मुझे कोई रंग लगाए। स्कूल में मैंने सबको बता दिया था जो अब्बू मुझे सिखाया करते कि रंग लगाने से अल्लाह नाराज़ होता है और शरीर के जिस हिस्से में रंग लगाया जाता है उस हिस्से का गोश्त कयामत के दिन काट लिया जाएगा। पूरे स्कूल की पढ़ाई के समय लोग मेरी बात सुनकर डर गए क्यूंकि मैं हमेशा टीचर से कंप्लेन की धमकी दे देती थी पर आगे आने वाले समय में कॉलेज में जब जाऊंगी तो क्या ये टीचर से कंप्लेन वाली धमकी चल पाएगी जब स्टूडेंट्स अपने को बड़ा समझने लगते हैं और मुझे न पता था कि टीचर्स ही उनसे डरने लगेंगे।
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खैर समय के साथ साथ मैं बोर्ड्स में 74% से पास कर लेती हूँ। अब्बू मुझे पढ़ने के लिए घर से बाहर नहीं भेजना चाहते थे। मैं और पढ़ना चाहती थी तो थोड़ा सा हिम्मत कर अब्बू से बोला कि हमारे शहर में कोई अच्छा कॉलेज नहीं तो क्या मैं कहीं बाहर के लिए सोचूं। अब्बू अम्मी दोनों मना करते हैं और मुझे अपने शहर में ही एक छोटे से कॉलेज में बीए में एडमिशन दिला देते हैं। वहाँ जाने की भी ज़रूरत नहीं होती थी, सिर्फ एग्जाम देना होता था। अब्बू अम्मी को लगता था कि कॉलेज में दीनदार लड़के और लड़कियाँ भी बिगड़ जाते हैं इसीलिए वो मुझे वहाँ नहीं जाने देना चाहते थे।
बीए का आखिरी साल भी न पूरा हुआ था कि मेरी शादी अब्बू अम्मी तय करने लगे। बड़े खानदान का रिश्ता आया था अब्बू अम्मी हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। मुझे देखने को उनके घरवाले आ रहे थे, मुझे नहीं बताया गया पर चुपके से घरवालों के साथ मेरा होने वाला शौहर भी मुझे देखने आने वाला था
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घर में शादी का रिश्ता आने से बहुत चहल पहल बढ़ गई। रिश्तेदारों के फ़ोन आने लगे। मुबारकबाद तो सब दे रहे थे पर घर के बड़े बुजुर्गों को एक बात न समझ आ रही थी कि होने वाले शौहर को लड़की को कैसे दिखाने के लिए अब्बू राज़ी हो गए। वो उन्हें तरह तरह से समझा रहे थे कि मुझे लड़के को दिखाना हराम है। शाम को चाय के समय अक्सर चाचा लोग घर आकर बात करते, में उठ के अलग हो जाती पर दूसरे कमरे में आवाज़ें आतीं।
चाचा: हमारी लड़की हिजाब परहेज़ है, उन्हें ऐसी मांग नहीं करनी चाहिए।
अब्बू: इतने बड़े लोग हैं तो कुछ तो मानना ही पड़ेगा
अम्मी: पर अगर वो नहीं रिश्ता पक्का करते है...
चाचा: यही तो, हमारे घर की तो इज़्ज़त नीलाम हो जाएगी। लड़की के हुस्न को तो देख ही लेगा और फिर बात आगे नहीं बढ़ी तो?
अब्बू: लड़के के अब्बू के चार चार ईंट के भट्टे और चमड़े का कारखाना है। लड़के के चाचा MLA हैं। हमारी लड़की ऊंचे खानदान में ऐश से भी तो रहेगी। और अफराह बेटी को कोई कैसे नापसंद कयार सकता है, वैसे भी शरीयत में शौहर शादी से पहले देख सकता है बीवी को।
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अम्मी: दीन पसंद लोग तो हैं क्योंकि इतने बड़े लोग होने के बाद भी दीनदार लड़की चाह रहे हैं।
मुझे भी कुछ न समझ आ रहा था। आजतक मैं किसी पराये मर्द के सामने आंखें उठा के नहीं देखी। जब से खुद को औरत होने का एहसास हुआ तो शायद कभी भी किसी पराये मर्द के सामने नहीं गयीं। कॉलेज तक में भी किसी लड़के से बात न हुई थी। ये सब कैसे होगा कुछ समझ न आ रहा था। आखिरकार वो दिन आ गया जब घर के सामने चार चार गाड़ियों का जमावड़ा लगा। लड़के की अम्मी, दादी, अब्बू, चाचा, चाची और उनके छोटे बच्चे घर में आ गए थे। मैं बस नहा के निकली ही थीं। मुझे ये बताया गया था कि मुझे चाय के बहाने उन लोगों के सामने जाना होगा। हमारे यहां मेहमानों का इनतेज़ाम मर्द और औरत के लिए अलग अलग होता है। औरतों का इनतेज़ाम घर के अंदर वाले कमरों में था और मर्दों का बाहर ड्राइंग रूम में। बच्चे कहीं भी आ जा सकते थे।मुझे लड़के की अममी, दादी और चाची के सामने जाने की कोई मनाई नहीं थी बल्कि उनके साथ नाश्ते की मेज़ पे ही बैठना था और चाय देने के बहाने बाहर वाले कमरे में लड़के, उसके अब्बू और चाचा के पास जाना है। सबको हाथ में चाय देनी है ट्रे से उठा उठा के ताकि लड़के को अच्छा खासा समय मिले मेरे हुस्न से दीदार करने का। डर तो ये था कि सिर्फ लड़का ही नहीं उनके अब्बू, दादा और चाचा भी और साथ में मेरे अब्बू भी वहीं होंगे, ऐसे में क्या मैं उसे देख पाऊंगी? एक बार ऐसा खयाल आया पर अल्लाह कसम मैं तो सोच में भी उसे देखने की गुस्ताखी से डर गयीं।
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मैं तैयार भी न हो पायीं थी कि घर चहल पहल से भर गया था। सबकी आवाज़ें आ रहीं थीं। मुझे देर इसलिए भी हो गयी क्यूँकि में घर को सुबह से अम्मी के साथ साफ कर रही थीं, पर्दे और चादर बदल रहीं थीं। मैं नहा के निकली ही थीं कि मेरी चाची अंदर आके बोलीं बेटा जल्दी करलो उन लोगों को थोड़ी जल्दी है, ज़्यादा देर नहीं रुकने को कह रहे। वो लोग शायद रिश्ता पक्का होने से पहले हमारे घर में कुछ खाना नहीं चाहते थे। उनके लिए नाश्ता अम्मी लगा ही रहीं थीं कि वो लोग कहने लगीं की अफराह नहीं दिख रही। अम्मी के मुँह से निकल गया कि तैयार हो रही है। तभी लड़के की अम्मी कह देती हैं कोई बात नहीं हम उसे वहीं तैयार होने वाली जगह देख लेते हैं तब तक आप लड़के की दादी और चाची की खातिरदारी करिये। मैं दुपट्टा ओढ़ के बाल को बांधी ही थी कि लड़के की अम्मी को अंदर लेकर मेरी चाची आ गईं। मेरी नज़रें ऊपर उठीं और एक दम से नीचता झुक गयीं। मैंने लाल रंग की जम्पर और काले रंग का चूड़ीदार पहना था। मेरे बाल अब भी गीले थे। लड़की की अम्मी सीधा आते हुए सुभानअल्लाह कहती हैं और अपने पर्स से पैसे निकाल मेरी हथेली पर रखती हैं। वो लड़के की दादी को भी बुला देती है और उनके हाथ से मेरी हथेली पे सोने के सिक्के चढ़ा देती हैं। अम्मी मना करती हैं की ये सब अभी नहीं पर लड़के की चाची बोलती हैं नहीं ये वैसा नहीं जो आप समझ रहीं, अगर कोई वजह से बात आगे नहीं बढ़ती तो आप लौटा दीजियेगा। फिर ऐसे ही इधर उधर की बात होती हैं। वो मुझसे मेरी पढ़ाई और खाना बनाने के बारे में पूछती हैं। अम्मी चाची से कहती हैं कि ऐसा करो चाय नाश्ता यहीं ल् आओ तभी लड़के की अम्मी बोलती हैं नहीं नहीं आप परेशान मत होइए हम वहीं कमरे में चलते हैं, हुमैमा देर हो रही है आप ऐसा कीजिये कि अफराह को चाय लेकर बाहर भेज दीजिये। वो मुझसे कहती हैं बीटा आप तैयार हो गए न अब जल्दी से बाहर हो आइये। में कहती हूँ जी बस और मेज़ पर से हिजाब उठा के बांधने लगती हूँ कि तभी लड़के की अम्मी बोलती हैं बेटा इसकी जरूरत नहीं, ऐसे ही जाइये।यह सुनते ही मेरे पैर के नीचे से जानीं खिसक जाती है। क्या? मैं अम्मी की तरफ देखती हूँ, अम्मी लड़के की अममी की तरफ पर कोई कुछ नहीं बोलता। थोड़ी देर में लड़के की चाची बोलती हैं कि हिजाब में कैसे कोई किसी को देखेगा? आपको तो पता ही है कि हम क्यों आएं है....
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बिना हिजाब के किसी मेहमान के सामने कभी नहीं गयीं थी। मेरी तो सांसें तेज़ हो गयी थीं हाथ पैर कांप रहे थे। बिना हिजाब के जाना मानो ऐसा लग रहा था कि जैसे बिना कपड़ों के किसी अनजान मर्द के सामने जाऊं। उसकी नज़रें मुझे अभी से अपने जिस्म के हर एक अंग के ऊपर सैर करती लगने लगी। मैं कमरे के बाहर चाय की ट्रे लिए खड़ी थीं। पैर अंदर नहीं जा रहे थे। पीछे से चाची मुझे हल्का सा धक्का देती हैं, मैं अंदर चली जाती हूँ। मुझे कुछ नहीं पता कौन कहाँ बैठा है। मेरी नज़रें ऊपर ही नहीं उठ रहीं, तेज़ साँसों में मेरा सीना किसी समंदर की लहर की तरह ऊपर नीचे हो रहा था।मैं कमरे में घुसते ही अस्सलामुअलैकुम कहती हूँ..... तभी दो तीन आवाज़ें जवाब देती हैं वअलैकुमुस्सलाम, खुश रहो! मेरे कदम आगे बढ़ते हैं, मेरी नज़रें नीचे हैं, एक सफेद पजामा पहने पैरों के पास ट्रे लेकर रुकती हूँ वो चाय की प्याली उठा लेते हैं। ऐसे ही एक ब्लैक जूते पहने पैंट वाले पैरों के पास रुकती हूँ, ये तो अब्बू हैं उनके जूते पहचानती थीं। आंखें ऊपर की अब्बू ने चाय की प्याली उठायी, उनसे आंख मिली और आंख मिलते ही मानो उनकी नज़रें मुझसे पूछ रहीं थी कि हिजाब कहाँ है? ऐसे नंगा सिर लेकर गीले बालों को आधा बांधकर क्यों चली आयीं? मैं कुछ जवाब न दे सकती थीं ..ऐसे धीरे धीरे दो और पयजामा वाले पैर आये, मेरी नज़र न उठी। फिर एक और चमकते हुए बूट्स और डेनिम जीन्स दिखीं, मैं चाय लेकर पास गयीं ही थी कि किसी ने पीछे से बोला हमारा उज़ैर चाय नहीं पीता। मैं बोल नहीं सकती थीं पर ये तो कॉफी थी, मुझे समझ न आ रहा था मि आकगरी प्याली का क्या करूँ? क्योंकि वी डेनिम जीन्स वाले पैर तो आगे बढ़कर प्याली को नहीं उठा रहे थे। तभी एक दूसरी आवाज़ ने कहा बेटे आप ट्रे मेज़ पे रख दें मैं मेज़ पे रखने के लिए झुकती हूँ। मेरी एक लट कान से नीचे गिरती है। में उसे संभालती ही हूँ कि अब्बू की आवाज़ आती है तो क्या उज़ैर कॉफी भी नही लेते? तभी वो कहते हैं नहीं कॉफी पी लेता हूँ अंकल, उस आवाज़ को सुनकर मेरे हाथ से मेरी लट फिर फिसल जाती है है। उस आवाज़ में पता नहीं क्या था पर वो उस डेनिम जीन्स वाले पैर के पास से आई थी और मेरे दिल को एक धक्का सा लगा। अब्बू कहते हैं ये बीटा कॉफी ही है। तभी वो जीन्स वाले पैर मेरी तरफ बढ़ते हैं, उनका हाथ मेरे सीने के करीब पहुंचता है और कप को उठाते हुए बोलते हैं कि मैं खुद ल् लेता हूँ फिर। मेरी आँखें उस पल भर के लिए ऊपर उठती हैं, वो मुझे ही देख रहे थे, ऊपर से नीचे जाती उनकी नज़रों को मैं भांप रही थी। बिना हिजाब के उनका मुझे ऐसे देखना एक अजीब ही गुदगुदी पेट में कर रहा था। मैं अब्बू की तरफ नज़र करती हूँ वो मुझसे नज़र हटा लेते हैं मानो वो खुद शर्मिंदा हो और ये महसूस कर रहे हों कि वो मेरे हुस्न की नुमाइश करवा रहै हैं। मैं ट्रे वहीं पे छोड़ कर उठती हूँ और कमरे के बाहर आ जाती हूँ। दरवाज़े के उस पार आकर मुझे ऐसा लगता है कि मानो अल्लाह के फ़ज़ल से मेरे नंगे जिस्म पे किसी ने अब चादर डाल कर ढक दिया हो।
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